प्रेम सुधा सागर पृ. 155

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
बीसवाँ अध्याय

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किसान खेतों की मेड़ मजबूत करके जल का बहना रोकने लगे - जैसे योगीजन अपनी इन्द्रियों को विषयों की ओर जाने से रोककर, प्रत्याहार करके उनके द्वारा क्षीण होते हुए ज्ञान की रक्षा करते हैं। शरद ऋतु में दिन के समय बड़ी कड़ी धूप होती, लोगों को बहुत कष्ट होता; परन्तु चन्द्रमा रात्रि एक समय लोगों का सारा सन्ताप वैसे ही हर लेते - जैसे देहाभिमान से होने वाले दुःख को ज्ञान और भग्वद्विरह से होने वाले गोपियों के दुःख को श्रीकृष्ण नष्ट कर देते हैं।

जैसे वेदों के अर्थ को स्पष्ट रूप से जानने वाला सत्त्वगुणी चित्त अत्यन्त शोभायमान होता है, वैसे ही शरद ऋतु में रात के समय मेघों से रहित निर्मल आकाश तारों की ज्योति से जगमगाने लगा।

परीक्षित! जैसे पृथ्वीतल में यदुवंशियों के बीच यदुपति भगवान श्रीकृष्ण की शोभा होती है, वैसे ही आकाश में तारों के बीच पूर्ण चन्द्रमा सुशोभित होने लगा। फूलों से लदे हुए वृक्ष और लताओं में होकर बड़ी ही सुन्दर वायु बहती; वह न अधिक ठंडी होती और न अधिक गरम। उस वायु के स्पर्श से सब लोगों की जलन तो मिट जाती, परन्तु गोपियों की जलन और भी बढ़ जाती; क्योंकि उनका चित्त उनके हाथ में नहीं था, श्रीकृष्ण ने उसे चुरा लिया था। शरद ऋतु में गौएँ, हिरनियाँ, चिड़ियाँ और नारियाँ ऋतुमती-संतानोत्पत्ति की कामना से युक्त हो गयीं तथा सांड, हिरन, पक्षी और पुरुष उनका अनुसरण करने लगे - ठीक वैसे ही, जैसे समर्थ पुरुष के द्वारा की हुई क्रियाओं का अनुसरण उनके फल करते हैं।

परीक्षित! जैसे राजा के शुभागमन से डाकू चोरों के सिवा और सब लोग निर्भय हो जाते हैं, वैसे ही सूर्योदय के कारण कुमुदिनी (कुँई या कोईं) के अतिरिक्त और सभी प्रकार के कमल खिल गये। उस समय बड़े-बड़े शहरों और गाँवों में नवान्नप्राशन और इन्द्रसम्बन्धी उत्सव होने लगे। खेतों में अनाज पक गये और पृथ्वी भगवान श्रीकृष्ण तथा बलराम जी की उपस्थिति से अत्यन्त सुशोभित होने लगी। साधना करके सिद्ध हुए पुरुष जैसे समय आने पर अपने देव आदि शरीरों को प्राप्त होते हैं, वैसे ही वैश्य, संन्यासी, राजा और स्नातक - जो वर्षा के कारण एक स्थान पर रुके हुए थे - वहाँ से चलकर अपने-अपने अभीष्ट काम-काज में लग गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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