प्रेम सुधा सागर पृ. 149

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
उन्नीसवाँ अध्याय

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जब ग्वालों और गौओं ने देखा कि दावनल चारों ओर से हमारी ही ओर बढ़ता आ रहा है, तब वे अत्यन्त भयभीत हो गये और मृत्यु के भय से डरे हुए जीव जिस प्रकार भगवान की शरण में आते हैं, वैसे ही वे श्रीकृष्ण और बलरामजी के शरणापन्न होकर उन्हें पुकारते हुए बोले - ‘महावीर श्रीकृष्ण! प्यारे श्रीकृष्ण! परम बलशाली बलराम! हम तुम्हारे शरणागत हैं। देखो, इस समय हम दावानल से जलना ही चाहते हैं। तुम दोनों हमें इससे बचाओ। श्रीकृष्ण! जिनके तुम्हीं भाई-बन्धु और सब कुछ हो, उन्हें तो किसी प्रकार का कष्ट नहीं होना चाहिये। सब धर्मों के ज्ञाता श्यामसुन्दर! तुम्हीं हमारे एकमात्र रक्षक एवं स्वामी हो; हमें केवल तुम्हारा ही भरोसा है।'

श्री शुकदेव जी कहते हैं - अपने सखा ग्वालबालों के ये दीनता से भरे वचन सुन्दर भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - ‘डरो मत, तुम अपनी आँखें बंद कर लो।'

भगवान की आज्ञा सुनकर उन ग्वालबालों ने कहा ‘बहुत अच्छा’ और अपनी आँखें मूँद लीं। तब योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने उस भयंकर आग को अपने मुँह में पी लिया।[1] इसके बाद जब ग्वालबालों ने अपनी-अपनी आँखें खोलकर देखा तब अपने को भाण्डीर वट पास पाया। इस प्रकार अपने-आपको और गौओं को दावानल बचा देख वे ग्वालबाल बहुत ही विस्मित हुए। श्रीकृष्ण की इस योगसिद्धि तथा योगमाया के प्रभाव को एवं दावानल से अपनी रक्षा को देखकर उन्होंने यही समझा कि श्रीकृष्ण कोई देवता हैं।

परीक्षित! सायंकाल होने पर बलराम जी के साथ भगवान श्रीकृष्ण ने गौएँ लौटायीं और वंशी बजाते हुए उनके पीछे-पीछे व्रज की यात्रा की। उस समय ग्वालबाल उनकी स्तुति करते आ रहे थे। इधर व्रज में गोपियों को श्रीकृष्ण के बिना एक-एक क्षण सौ-सौ युग के समान हो रहा था। जब भगवान श्रीकृष्ण लौटे तब उनका दर्शन करके वे परमानन्द में मग्न हो गयीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

    1. भगवान श्रीकृष्ण भक्तों के द्वारा अर्पित प्रेम-भक्ति-सुधा-रस का पान करते हैं। अग्नि के मन में उसी का स्वाद लेने की लालसा हो आयी। इसलिये उसने स्वयं ही मुख में प्रवेश किया।
    2. विषाग्नि, मुंजाग्नि और दावाग्नि - तीनों का पान करके भगवान ने अपनी त्रिताप नाश की शक्ति व्यक्त की।
    3. पहले रात्रि में अग्नि पान किया था, दूसरी बार दिन में। भगवान अपने भक्तजनों का ताप हरने के लिये सदा तत्पर रहते हैं।
    4. पहली बार सबके सामने और दूसरी बार सबकी आँखें बंद कराके श्रीकृष्ण ने अग्निपान किया। इसका अभिप्राय यह है कि भगवान परोक्ष और अपरोक्ष दोनों ही प्रकार से वे भक्तजनों का हित करते हैं।

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