प्रेम सुधा सागर पृ. 141

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
सप्तदश अध्याय

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यमुना जी का यह कुण्ड गरुड़ के लिये अगम्य था। साथ ही वह इतना गहरा था कि उसमें दूसरे लोग भी नहीं जा सकते थे। इसी स्थान पर एक दिन क्षुधातुर गरुड़ ने तपस्वी सौभरि के मना करने पर भी अपने अभीष्ट भक्ष्य मत्स्य को बलपूर्वक पकड़कर खा लिया। अपने मुखिया मत्स्यराज के मारे जाने के कारण मछलियों को बड़ा कष्ट हुआ। वे अत्यन्त दीन और व्याकुल हो गयीं। उनकी यह दशा देखकर महर्षि सौभरि को बड़ी दया आयी। उन्होंने उस कुण्ड में रहने-वाले सब जीवों की भलाई के लिये गरुड़ को यह शाप दे दिया। ‘यदि गरुड़ फिर कभी इस कुण्ड में घुसकर मछलियों को खायेंगे, तो उसी क्षण प्राणों से हाथ धो बैठेंगे। मैं यह सत्य-सत्य कहता हूँ।'

परीक्षित! महर्षि सौभरि के इस शाप की बात कालिय नाग के सिवा और कोई साँप नहीं जानता था। इसलिये वह गरुड़ के भय से वहाँ रहने लगा था और अब भगवान श्रीकृष्ण ने उसे निर्भय करके वहाँ से रमण द्वीप में भेज दिया।

परीक्षित! इधर भगवान श्रीकृष्ण दिव्य माला, गन्ध, वस्त्र, महामूल्य मणि और सुवर्णमय आभूषणों से विभूषित हो उस कुण्ड से बाहर निकले।

उनको देखकर सब-के-सब व्रजवासी इस प्रकार उठ खड़े हुए, जैसे प्राणों को पाकर इन्द्रियाँ सचेत हो जाती हैं। सभी गोपों का हृदय आनन्द से भर गया। वे बड़े प्रेम और प्रसन्नता से अपने कन्हैया को हृदय से लगाने लगे। परीक्षित! यशोदा रानी, रोहिणी जी, नन्दबाबा, गोपी और गोप - सभी श्रीकृष्ण को पाकर सचेत हो गये। उनका मनोरथ सफल हो गया। बलराम जी तो भगवान का प्रभाव जानते ही थे। वे श्रीकृष्ण को हृदय लगाकर हँसने लगे। पर्वत, वृक्ष, गाय, बैल, बछड़े - सब-के-सब आनन्दमग्न हो गये।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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