प्रेम सुधा सागर पृ. 139

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
षोडश अध्याय

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कालिय नाग ने कहा - नाथ! हम जन्म से ही दुष्ट, तमोगुणी और बहुत दिनों के बाद भी बदला लेने वाले - बड़े क्रोधी जीव हैं। जीवों के लिये अपना स्वभाव छोड़ देना बहुत कठिन है। इसी के कारण संसार के लोग नाना प्रकार के दुराग्रहों में फँस जाते हैं। विश्वविधाता! आपने ही गुणों के भेद से इस जगत में नाना प्रकार के स्वभाव, वीर्य, बल, योनि, बीज, चित्त और आकृतियों का निर्माण किया है।

भगवन्! आपकी ही सृष्टि में हम सर्प भी हैं। हम जन्म से ही बड़े क्रोधी होते हैं। हम इस माया के चक्कर में स्वयं मोहित हो रहे हैं। फिर अपने प्रयत्न से इस दुस्त्यज माया का त्याग कैसे करें। आप सर्वज्ञ और सम्पूर्ण जगत के स्वामी हैं। आप ही हमारे स्वभाव और इस माया के कारण हैं। अब आप अपनी इच्छा से - जैसा ठीक समझें - कृपा कीजिये या दण्ड दीजिये।

श्री शुकदेव जी कहते हैं - कालिय नाग की बात सुनकर लीला-मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण ने कहा - ‘सर्प! अब तुझे यहाँ नहीं रहना चाहिये। तू अपने जाति-भाई, पुत्र और स्त्रियों के साथ शीघ्र ही यहाँ से समुद्र में चला जा। अब गौएँ और मनुष्य यमुना-जल का उपभोग करें। जो मनुष्य दोनों समय तुझको दी हुई मेरी इस आज्ञा का स्मरण तथा कीर्तन करे, उसे साँपों से कभी भय न हो। मैंने इस कालिय दह में क्रीड़ा की है। इसलिये जो पुरुष इसमें स्नान करके जल से देवता और पितरों का तर्पण करेगा, एवं उपवास करके मेरा स्मरण करता हुआ मेरी पूजा करेगा - वह सब पापों से मुक्त हो जायगा। मैं जानता हूँ कि तू गरुड़ के भय से रमणक द्वीप छोड़कर इस दह में आ बसा था। अब तेरा शरीर मेरे चरणचिह्नों से अंकित हो गया है। इसलिये जा, अब गरुड़ तुझे खायेंगे नहीं।

श्री शुकदेव जी कहते हैं - भगवान श्रीकृष्ण की एक-एक लीला अद्भुत है। उनकी ऐसी आज्ञा पाकर कालिय नाग और उसकी पत्नियों ने आनन्द से भरकर बड़े आदर से उनकी पूजा की।

उन्होंने दिव्य वस्त्र, पुष्पमाला, मणि, बहुमूल्य आभूषण, दिव्य गन्ध, चन्दन और अति उत्तम कमलों की माला से जगत के स्वामी गरुडध्वज भगवान श्रीकृष्ण का पूजन करके उन्हें प्रसन्न किया। इसके बाद बड़े प्रेम और आनन्द से उनकी परिक्रमा की, वन्दना की और उनसे अनुमति ली। तब अपनी पत्नियों, पुत्रों और बन्धु-बान्धवों के साथ रमणक द्वीप की, जो समुद्र में सर्पों के रहने का एक स्थान है, यात्रा की। लीला-मनुष्य भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से यमुना जी का जल केवल विषहीन ही नहीं, बल्कि उसी समय अमृत के समान मधुर हो गया।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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