प्रेम सुधा सागर पृ. 117

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
चतुर्दश अध्याय

Prev.png

सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण! आप सबके साक्षी हैं। इसलिये आप सब कुछ जानते हैं। आप समस्त जगत के स्वामी हैं। यह सम्पूर्ण प्रपंच आपमें ही स्थित है। आपसे मैं और क्या कहूँ? अब आप मुझे स्वीकार कीजिये। मुझे अपने लोक में जाने की आज्ञा दीजिये। सबके मन-प्राण को अपनी रूप-माधुरी से आकर्षित करवाले श्यामसुन्दर! आप यदुवंशरूपी कमल को विकसित करने वाले सूर्य हैं। प्रभो! पृथ्वी, देवता, ब्राह्मण और पशुरूप समुद्र की अभिवृद्धि करने वाले चन्द्रमा भी आप ही हैं। आप पाखण्डियों के धर्मरूप रात्रि का घोर अन्धकार नष्ट करने के लिये सूर्य और चन्द्रमा दोनों के ही समान हैं। पृथ्वी पर रहने वाले राक्षसों के नष्ट करने वाले आप चन्द्रमा, सूर्य आदि समस्त देवताओं के भी परम पूजनीय हैं। भगवन! मैं अपने जीवन भर, महाकल्प पर्यंत आपको नमस्कार ही करता रहूँ।

श्री शुकदेव जी कहते हैं - परीक्षित! संसार के रचयिता ब्रह्मा जी ने इस प्रकार भगवान श्रीकृष्ण की स्तुति की। इसके बाद उन्होंने तीन बार परिक्रमा करके उनके चरणों में प्रणाम किया और फिर अपने गंतव्य स्थान सत्यलोक में चले गये। ब्रह्मा जी ने बछड़ों और ग्वालबालों को पहले ही यथास्थान पहुँचा दिया था। भगवान श्रीकृष्ण ने ब्रह्मा जी को विदा कर दिया और बछड़ों को लेकर यमुना जी के पुलिन पर आये, जहाँ वे अपने सखा ग्वालबालों को पहले छोड़ गये थे।

परीक्षित! अपने जीवनसर्वस्व - प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण के वियोग में यद्यपि एक वर्ष बीत गया था, तथापि उन ग्वालबालों को वह समय आधे क्षण के समान जान पड़ा। क्यों न हो, वे भगवान की विश्व-विमोहिनी योगमाया से मोहित जो हो गये थे। जगत के सभी जीव उसी माया से मोहित होकर शास्त्र और आचार्यों के बार-बार समझाने पर भी अपने आत्मा को निरन्तर भूले गए हैं। वास्तव में उस माया की ऐसी ही शक्ति है। भला, उससे मोहित होकर जीव यहाँ क्या-क्या नहीं भूल जाते हैं?

Next.png

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः