प्रेम सुधा सागर पृ. 11

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
दूसरा अध्याय

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वह मनुष्य तो जीवित रहने पर भी मरा हुआ ही है, जो अत्यंत क्रूरता का व्यवहार करता है। उसकी मृत्यु के बाद लोग उसे गाली देते हैं। इतना ही नही, वह देहाभिमानियों के योग्य घोर नरक में भी अवश्य जाता है। यद्यपि कंस देवकी को मार सकता था, किन्तु स्वयं ही वह इस अत्यन्त क्रूरता के विचार से निवृत हो गया[1] अब भगवान के प्रति दृढ़ वैर का भाव मन में गाँठकर उनके जन्म की प्रतीक्षा करने लगा। वह उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते-जागते और चलते-फिरते-सर्वदा ही श्रीकृष्ण के चिन्तन में लगा रहता। जहाँ उसकी आँख पड़ती, जहाँ कुछ खड़का होता, वहाँ उसे श्रीकृष्ण दीख जाते। इस प्रकार उसे सारा जगत ही श्रीकृष्णमय दीखने लगा।

परीक्षित ! भगवान शंकर और ब्रह्मा जी कंस के क़ैदखाने में आये। उनके साथ नारद आदि ऋषि भी थे। वे लोग सुमधुर वचनों से सबकी अभिलाषा पूर्ण करने वाले श्रीहरि की इस प्रकार स्तुति करने लगे - 'प्रभो ! आप सत्यसंकल्प हैं। सत्य ही आपकी प्राप्ति का श्रेष्ठ साधन है। सृष्टि के पूर्व, प्रलय के पश्चात् और संसार की स्थिति के समय - इन असत्य अवस्थाओं में भी आप सत्य हैं। पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश इन पाँच दृश्यमान सत्यों के आप ही कारण हैं और उनमें अन्तर्यामी रूप से विराजमान भी हैं। आप इस दृश्यमान जगत के परमार्थस्वरूप हैं। आप ही मधुर वाणी और समदर्शन के प्रवर्तक हैं। भगवन! आप बस, सत्यस्वरूप ही हैं। हम सब आपकी शरण में आये हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. जो कंस विवाह के मंगल चिह्नों को धारण की हुई देवकी का गला काटने के उद्योग से न हिचका, वही आज इतना सद्-विचारवान हो गया, इसका क्या कारण है? अवश्य ही आज वह जिस देवकी को देख रहा है, उसके अन्तरंग में गर्भ में श्रीभगवान हैं। जिसके भीतर भगवान हैं, उसके दर्शन से सद्बुद्धि का उदय होना कोई आश्चर्य नहीं है।

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