प्रेम सुधा सागर पृ. 109

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
चतुर्दश अध्याय

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ब्रह्मा जी के द्वारा भगवान की स्तुति

ब्रह्मा जी ने स्तुति की - प्रभो! एकमात्र आप ही स्तुति करने योग्य हैं। मैं आपके चरणों में नमस्कार करता हूँ। आपका यह शरीर वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल है, इस पर स्थिर बिजली के समान झिलमिल-झिलमिल करता हुआ पीताम्बर शोभा पाता है आपके गले में घुँघची की माला, कानों में मकराकृति कुण्डल तथा सिर पर मोर पंखों का मुकुट है, इन सबकी कान्ति से आपके मुख पर अनोखी छटा छिटक रही है। वक्षःस्थल पर लटकती हुई वनमाला और नन्ही-सी हथेली पर दही-भात का कौर। बगल में बेंत और सिंगी तथा कमर की फेंट में में आपकी पहचान बताने वाली बाँसुरी शोभा पा रही है।

आपके कमल-से सुकोमल परम सुकुमार चरण और यह गोपाल-बालक का सुमधुर वेष।[1] स्वयं-प्रकाश परमात्मन! आपका यह श्रीविग्रह भक्तों की लालसा-अभिलाषा पूर्ण करने वाला है। यह आपकी चिन्मयी इच्छा का मूर्तिमान स्वरूप मुझ पर आपका साक्षात कृपा-प्रसाद है। मुझे अनुगृहीत करने के लिए ही आपने इसे प्रकट किया है। कौन कहता है कि यह पंचभूतों की रचना है? प्रभो! यह तो अप्राकृत शुद्ध सत्त्वमय है। मैं या और कोई समाधि लगाकर भी आपके इस सच्चिदानन्द-विग्रह की महिमा नहीं जान सकता। फिर आत्मा-नन्दानुभवस्वरूप साक्षात आपकी ही महिमा को तो कोई एकाग्र मन से भी कैसे जान सकता है।

प्रभो! जो लोग ज्ञान के लिए प्रयत्न न करके अपने स्थान में ही स्थित रहकर केवल सत्संग करते हैं और आपके प्रेमी संत पुरुषों के द्वारा गयी हुई आपकी लीला-कथा का, जो उन लोगों के पास रहने से अपने-आप सुनने को मिलती है, शरीर, वाणी और मन से विनयावनत होकर सेवन करते हैं - यहाँ तक कि उसे ही अपना जीवन बना लेते हैं, उसके बिना जी ही नहीं सकते - प्रभो! यद्यपि आप पर त्रिलोकी में कोई कभी विजय नहीं प्राप्त कर सकता, फिर भी वे आप पर विजय प्राप्त कर लेते हैं, आप उनके प्रेम के अधीन हो जाते हैं। भगवन! आपकी भक्ति सब प्रकार से कल्याण का मूलस्त्रोत - उद्गम है। जो लोग उसे छोड़कर केवल ज्ञान की प्राप्ति के लिये श्रम उठाते और दुःख भोगते हैं, उनको बस क्लेश-ही-क्लेश हाथ लगता है, और कुछ नहीं - जैसे थोथी भूसी कूटनेवाले को केवल श्रम ही मिलता है, चावल नहीं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. मैं और कुछ नहीं जानता; बस, मैं तो इन्हीं चरणों पर निछावर हूँ

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