प्रेम सुधा सागर अध्याय 8 श्लोक 31 का विस्तृत संदर्भ/4

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
आठवाँ अध्याय

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  • कुशध्वज नामक ब्रह्मर्षि के पुत्र शुचिश्रवा और सुवर्ण देवतत्त्वज्ञ थे। उन्होंने शीर्षासन करके ‘ह्रीं’ हंस-मन्त्र का जाप करते हुए और सुन्दर कन्दर्प-तुल्य गोकुलवासी दस वर्ष की उम्र के भगवान श्रीकृष्ण का ध्यान करते हुए घोर तपस्या की। कल्प के बाद वे ब्रज में सुधीर नामक गोप के घर उत्पन्न हुए।
  • इसी प्रकार और भी बहुत-सी गोपियों के पूर्वजन्म की कथाएँ प्राप्त होती हैं, विस्तारभय से उन सबका उल्लेख यहाँ नहीं किया गया। भगवान के लिये इतनी तपस्या करके इतनी लगन के साथ कल्पों तक साधना करके जिन त्यागी भाग्वत्प्रेमियों ने गोपियों का तन-मन प्राप्त किया था, उनकी अभिलाषा पूर्ण करने के लिये, उन्हें आनन्द-दान देने के लिये यदि भगवान उनकी मनचाही लीला करते हैं तो इसमें आश्चर्य और अनाचार की कौन-सी बात है ? रासलीला के प्रसंग में स्वयं भगवान ने श्रीगोपियों से कहा है -
‘गोपियों! तुमने लोक और परलोक के सारे बन्धनों को काटकर मुझसे निष्कपट प्रेम किया है; यदि मैं तुममें से प्रत्येक के लिये अलग-अलग अनन्त काल तक जीवन धारण करके तुम्हारे प्रेम का बदला चुकाना चाहूँ तो भी नहीं चुका सकता। मैं तुम्हारा ऋणी हूँ और ऋणी ही रहूँगा। तुम मुझे अपने साधु स्वभाव से ऋणरहित मानकर और भी ऋणी बना दो। ये उत्तम है।’
  • सर्वलोक महेश्वर भगवान श्रीकृष्ण स्वयं जिन महाभाग गोपियों के ऋणी रहना चाहते हैं, उनकी इच्छा होने से पूर्व ही भगवान पूर्ण कर दें - यह तो स्वाभाविक ही है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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