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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
तैंतीसवाँ अध्याय
साधना के दो भेद हैं- 1 - मर्यादा पूर्ण वैध साधना और 2 - मर्यादा रहित अवैध प्रेम साधना। दोनों के ही अपने-अपने स्वतन्त्र नियम हैं। वैध साधना में जैसे नियमों के बन्धन का, सनातन पद्धति का, कर्तव्यों का और विविध पालनीय कर्मों का त्याग साधना से भ्रष्ट करने वाला और महान हानिकर है, वैसे ही अवैध प्रेम साधना में इनका पालन-कलंक रूप होता है। यह बात नहीं कि इन सब आत्मोन्नति के साधनों को वह अवैध प्रेम साधना का साधक जान-बूझकर छोड़ देता है। बात यह है कि वह स्तर ही ऐसा है, जहाँ इनकी आवश्यकता नहीं है। ये वहाँ अपने-आप वैसे ही छूट जाते हैं, जैसे नदी के पार पहुँच जाने पर स्वाभाविक ही नौका की सवारी छूट जाती है। जमीन पर न तो नौका पर बैठकर चलने का प्रश्न उठता है और न ऐसा चाहने या करने वाला बुद्धिमान ही माना जाता है। ये सब साधन वहीं तक रहते हैं, जहाँ तक सारी वृत्तियाँ सहज स्वेच्छा से सदा-सर्वदा एकमात्र भगवान की ओर दौड़ने नहीं लग जातीं। इसीलिये भगवान ने गीता में के जगह तो अर्जुन से कहा है - |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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