प्रेम सुधा सागर अध्याय 33 श्लोक 40 का विस्तृत संदर्भ/6

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
तैंतीसवाँ अध्याय

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साधना के दो भेद हैं- 1 - मर्यादा पूर्ण वैध साधना और 2 - मर्यादा रहित अवैध प्रेम साधना। दोनों के ही अपने-अपने स्वतन्त्र नियम हैं। वैध साधना में जैसे नियमों के बन्धन का, सनातन पद्धति का, कर्तव्यों का और विविध पालनीय कर्मों का त्याग साधना से भ्रष्ट करने वाला और महान हानिकर है, वैसे ही अवैध प्रेम साधना में इनका पालन-कलंक रूप होता है। यह बात नहीं कि इन सब आत्मोन्नति के साधनों को वह अवैध प्रेम साधना का साधक जान-बूझकर छोड़ देता है। बात यह है कि वह स्तर ही ऐसा है, जहाँ इनकी आवश्यकता नहीं है। ये वहाँ अपने-आप वैसे ही छूट जाते हैं, जैसे नदी के पार पहुँच जाने पर स्वाभाविक ही नौका की सवारी छूट जाती है। जमीन पर न तो नौका पर बैठकर चलने का प्रश्न उठता है और न ऐसा चाहने या करने वाला बुद्धिमान ही माना जाता है। ये सब साधन वहीं तक रहते हैं, जहाँ तक सारी वृत्तियाँ सहज स्वेच्छा से सदा-सर्वदा एकमात्र भगवान की ओर दौड़ने नहीं लग जातीं। इसीलिये भगवान ने गीता में के जगह तो अर्जुन से कहा है -
‘अर्जुन! यद्यपि तीनों लोकों में मुझे कुछ भी करना नहीं है और न मुझे किसी वस्तु को प्राप्त ही करना है, जो मुझे न प्राप्त हो; तो भी मैं कर्म करता ही हूँ। यदि मैं सावधान होकर कर्म न करूँ तो अर्जुन! मेरी देखा-देखी लोग कर्मों को छोड़ बैठें और यों मेरे कर्म न करने से ये सारे लोक भ्रष्ट हो जायँ तथा मैं इन्हें वर्ण संकर बनाने वाला और सारी प्रजा का नाश करने वाला बनूँ। इसलिये मेरे इस आदर्श के अनुसार अनासक्त ज्ञानी पुरुष को भी लोक संग्रह के लिये वैसे ही कर्म करना चाहिये, जैसे कर्म में आसक्त अज्ञानी लोग करते हैं।’
यहाँ भगवान आदर्श लोकसंग्रही महापुरुष के रूप में बोलते हैं, लोक नायक बनकर सर्वसाधारण को शिक्षा देते हैं। इसलिये स्वयं अपना उदाहरण देकर लोगों को कर्म में प्रवृत्त करना चाहते हैं। ये ही भगवान उसी गीता में जहाँ अन्तरंगता की बात कहते हैं, वहाँ स्पष्ट कहते हैं -
‘सारे धर्मों का त्याग करके तू केवल एक मेरी शरण में आ जा।’
यह बात सबके लिये नहीं है। इसी से भगवान १८|६४ में इसे सबसे बढ़कर छिपी हुई गुप्त बात (सर्वगुह्यतम) कहकर इसके बाद के ही श्लोक में कहते हैं -
‘भैया अर्जुन! इन सर्वगुह्यतम बात को जो इन्द्रिय-विजयी तपस्वी न हो, मेरा भक्त न हो, सुनना न चाहता हो और मुझमें दोष लगाता हो, उसे न कहना।’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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