प्रेम सुधा सागर अध्याय 22 श्लोक 27 का विस्तृत संदर्भ/4

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
द्वाविंश अध्याय

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गोपियाँ, जो अभी-अभी साधन सिद्ध होकर भगवान की अन्तरंग लीला में प्रविष्ट होने वाली हैं, चिरकाल से श्रीकृष्ण के प्राणों में अपने प्राण मिला देने के लिये उत्कण्ठित हैं, सिद्धि लाभ के समीप पहुँच चुकी हैं। अथवा जो नित्यसिद्धा होने पर भी भगवान की इच्छा के अनुसार उनकी दिव्य लीला में सहयोग प्रदान कर रही हैं, उनके हृदय के समस्त भावों के एकान्त ज्ञाता श्रीकृष्ण बाँसुरी बजाकर उन्हें आकृष्ट करते हैं और जो कुछ उनके हृदय में बचे-खुचे पुराने संस्कार हैं, मानो उन्हें धो डालने के लिये साधना में लगाते हैं। उनकी कितनी दया है, वे अपने प्रेमियों से कितना प्रेम करते हैं - यह सोचकर चित्त मुग्ध हो जाता है, गद्गद हो जाता है।
श्रीकृष्ण गोपियों के वस्त्रों के रूप में उनके समस्त संस्कारों के आवरण अपने हाथ में लेकर पास ही कदम्ब के वृक्ष पर चढ़कर बैठ गये। गोपियाँ जल में थीं, वे जल में सर्वव्यापक सर्वदर्शी भगवान श्रीकृष्ण से मानो अपने को गुप्त समझ रही थीं - वे मानो इस तत्त्व को भूल गयी थीं कि श्रीकृष्ण जल में ही नहीं हैं, स्वयं जल स्वरूप भी वही हैं। उनके पुराने संस्कार श्रीकृष्ण के सम्मुख जाने में बाधक हो रहे थे; वे श्रीकृष्ण के लिये सब कुछ भूल गयी थीं, परन्तु अब तक अपने को नहीं भूली थीं। वे चाहती थीं केवल श्रीकृष्ण को, परन्तु उनके संस्कार बीच में एक परदा रखना चाहते थे। प्रेम प्रेमी और प्रियतम के बीच में एक पुष्प का भी परदा नहीं रखना चाहता। प्रेम की प्रकृति है सर्वथा व्यवधान रहित, अबाध और अनन्त मिलन। जहाँ तक अपना सर्वस्व-इसका विस्तार चाहे जितना हो - प्रेम की ज्वाला में भस्म नहीं कर दिया जाता, वहाँ तक प्रेम और समर्पण दोनों ही अपूर्ण रहते हैं। इसी अपूर्णता को दूर करते हुए, ‘शुद्ध भाव से प्रसन्न हुए’ (शुद्ध भाव प्रसादितः) श्रीकृष्ण ने कहा कि ‘मुझसे अनन्य प्रेम करने वाली गोपियों! एक बार, केवल एक बार अपने सर्वस्व को और अपने को भी भूलकर मेरे पास आओ तो सही। तुम्हारे हृदय में जो अव्यक्त त्याग है, उसे एक क्षण के लिये व्यक्त तो करो। क्या तुम मेरे लिये इतना भी नहीं कर सकती हो ?’ गोपियों ने मानो कहा - ‘श्रीकृष्ण! हम अपने को कैसे भूलें? हमारी जन्म-जन्म की धारणाएँ भूलने दें, तब न। हम संसार के अगाध जल में आकण्ठ मग्न हैं। जाड़े का कष्ट भी है। हम आना चाहने पर भी नहीं आ पाती हैं। श्यामसुन्दर! प्राणों के प्राण! हमारा हृदय तुम्हारे सामने उन्मुक्त है। हम तुम्हारी दासी हैं। तुम्हारी आज्ञाओं का पालन करेंगी। परन्तु हमें निरावरण करके अपने सामने मत बुलाओ।’ साधक की यह दशा - भगवान को चाहना और साथ ही संसार को भी न छोड़ना, संस्कारों में ही उलझे रहना - माया के परदे को बनाये रखना, बड़ी द्विविधा दशा है। भगवान यही सिखाते हैं कि ‘संस्कार शून्य होकर, निरावरण होकर, माया का परदा हटाकर आओ; मेरे पास आओ। अरे, तुम्हारा यह मोह का परदा तो मैंने ही छीन लिया है; तुम अब इस परदे के मोह में क्यों पड़ी हो? यह परदा ही तो परमात्मा और जीव के बीच में बड़ा व्यवधान है; यह हट गया, बड़ा कल्याण हुआ। अब तुम मेरे पास आओ, अभी तुम्हारी चिर संचित आकांक्षाएँ पूरी हो सकेंगी।’ परमात्मा श्रीकृष्ण यह आह्वान, आत्मा के आत्मा परम प्रियतम के मिलन का यह मधुर आमन्त्रण भगवत्कृपा से जिसके अन्तर्देश में प्रकट हो जाता है, वह प्रेम में निमग्न होकर सब कुछ छोड़कर, छोड़ना ही भूलकर प्रियतम श्रीकृष्ण के चरणों में दौड़ आता है। फिर न उसे अपने वस्त्रों की सुधि रहती है और न लोगों का ध्यान! न वह जगत को देखता है न अपने को। यह भगवत्प्रेम का रहस्य है। विशुद्ध आर अनन्य भगवत्प्रेम में ऐसा होता ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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