प्रेम सुधा सागर अध्याय 22 श्लोक 27 का विस्तृत संदर्भ/2

श्रीप्रेम सुधा सागर

दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
द्वाविंश अध्याय

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विलम्ब उनके लिये असह्य था। जाड़े के दिन में वे प्रातःकाल ही यमुना-स्नान के लिये जातीं, उन्हें शरीर शरीर की परवा नहीं थी। बहुत-सी कुमारी ग्वालिने एक साथ ही जातीं, उनमें ईर्ष्या-द्वेष नहीं था। वे ऊँचे स्वर से श्रीकृष्ण का नाम कीर्तन करती हुई जातीं, उन्हें गाँव और जाति वालों का भय नहीं था। वे घर में भी हविष्यान्न का ही भोजन करतीं, वे श्रीकृष्ण के लिये इतनी व्याकुल हो गयी थीं कि उन्हें माता-पिता तक का संकोच नहीं था। वे विधिपूर्वक देवी की बालुकामयी मूर्ति बनाकर पूजा और मन्त्र-जप करतीं थीं। अपने इस कार्य को सर्वथा उचित और प्रशस्त मानती थीं। एक वाक्य में - उन्होंने अपना कुल, परिवार, धर्म, संकोच और व्यक्तित्व भगवान के चरणों में सर्वथा समर्पण कर दिया था। वे यही जपती रहती थीं कि एकमात्र नन्दनन्दन ही हमारे प्राणों के स्वामी हों। श्रीकृष्ण तो वस्तुतः उनके स्वामी थे ही। परन्तु लीला की दृष्टि से उनके समर्पण में थोड़ी कमी थी। वे निरावरणरूप से श्रीकृष्ण के सामने नहीं जा रही थी, उनमें थोड़ी झिझक थी; उनकी यही झिझक दूर करने के लिये - उनकी साधना, उनका समर्पण पूर्ण करने के लिये उनका आवरण भंग कर देने की आवश्यकता थी, उनका यह आवरणरूप चीर हर लेना जरुरी था और यही काम भगवान श्रीकृष्ण ने किया। इसी के लिये वे योगेश्वरों के ईश्वर भगवान अपने मित्र ग्वालबालों के साथ यमुनातट पर पधारे थे।
साधन अपनी शक्ति से, अपने बल और संकल्प से केवल अपने निश्चय से पूर्ण समर्पण नहीं कर सकता। समर्पण भी एक क्रिया है और उसका करने वाला असमर्पित ही रह जाता है। ऐसी स्थिति में अन्तरात्मा का पूर्ण समर्पण तब होता है जब भगवान स्वयं आकर वह संकल्प स्वीकार करते हैं और संकल्प करने वाले को भी स्वीकार करते हैं। यहीं जाकर समर्पण पूर्ण होता है। साधक का कर्तव्य है - पूर्ण समर्पण की तैयारी। उसे पूर्ण तो भगवान ही करता है।
भगवान श्रीकृष्ण यों तो लीला पुरुषोत्तम हैं; फिर भी जब अपनी लीला प्रकट करते हैं, तब मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते, स्थापना ही करते हैं। विधि का अतिक्रमण करके कोई साधना के मार्ग में अग्रसर नहीं हो सकता। परन्तु हृदय की निष्कपटता, सच्चाई और सच्चा प्रेम विधि के अतिक्रमण को भी शिथिल कर देता है। गोपियाँ श्रीकृष्ण को प्राप्त करने के लिये जो साधना कर रही थीं, उसमें एक त्रुटि थी। वे शास्त्र-मर्यादा और परम्परागत सनातन मर्यादा का उल्लंघन करके नग्न-स्नान करती थीं। यद्यपि उनकी यह क्रिया अज्ञानपूर्वक ही थी, तथापि भगवान के द्वारा इसका मार्जन होना आवश्यक था। भगवान ने गोपियों से इसका प्रायश्चित भी करवाया। जो लोग भगवान के प्रेम के नाम पर विधि का उल्लंघन करते हैं, उन्हें यह प्रसंग ध्यान से पढ़ना चाहिये और भगवान शास्त्रविधि का कितना आदर करते हैं, यह देखना चाहिये।
वैधी भक्ति का पर्यवसान रागात्मिका भक्ति में है और रागात्मिका भक्ति पूर्ण समर्पण के रूप में परिणत हो जाती है। गोपियों ने वैधी भक्ति का अनुष्ठान किया, उनका हृदय तो रागात्मिका भक्ति से भरा हुआ था ही। अब पूर्ण समर्पण होना चाहिये। चीर-हरण के द्वारा वही कार्य सम्पन्न होता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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