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श्रीप्रेम सुधा सागर
दशम स्कन्ध
(पूर्वार्ध)
द्वाविंश अध्याय
विलम्ब उनके लिये असह्य था। जाड़े के दिन में वे प्रातःकाल ही यमुना-स्नान के लिये जातीं, उन्हें शरीर शरीर की परवा नहीं थी। बहुत-सी कुमारी ग्वालिने एक साथ ही जातीं, उनमें ईर्ष्या-द्वेष नहीं था। वे ऊँचे स्वर से श्रीकृष्ण का नाम कीर्तन करती हुई जातीं, उन्हें गाँव और जाति वालों का भय नहीं था। वे घर में भी हविष्यान्न का ही भोजन करतीं, वे श्रीकृष्ण के लिये इतनी व्याकुल हो गयी थीं कि उन्हें माता-पिता तक का संकोच नहीं था। वे विधिपूर्वक देवी की बालुकामयी मूर्ति बनाकर पूजा और मन्त्र-जप करतीं थीं। अपने इस कार्य को सर्वथा उचित और प्रशस्त मानती थीं। एक वाक्य में - उन्होंने अपना कुल, परिवार, धर्म, संकोच और व्यक्तित्व भगवान के चरणों में सर्वथा समर्पण कर दिया था। वे यही जपती रहती थीं कि एकमात्र नन्दनन्दन ही हमारे प्राणों के स्वामी हों। श्रीकृष्ण तो वस्तुतः उनके स्वामी थे ही। परन्तु लीला की दृष्टि से उनके समर्पण में थोड़ी कमी थी। वे निरावरणरूप से श्रीकृष्ण के सामने नहीं जा रही थी, उनमें थोड़ी झिझक थी; उनकी यही झिझक दूर करने के लिये - उनकी साधना, उनका समर्पण पूर्ण करने के लिये उनका आवरण भंग कर देने की आवश्यकता थी, उनका यह आवरणरूप चीर हर लेना जरुरी था और यही काम भगवान श्रीकृष्ण ने किया। इसी के लिये वे योगेश्वरों के ईश्वर भगवान अपने मित्र ग्वालबालों के साथ यमुनातट पर पधारे थे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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