प्रेम सत्संग सुधा माला
अब एक बात याद रखिये- जैसे मूल में एक श्रीकृष्ण हैं, वैसे मूल में केवल एक राधारानी ही हैं। पर राधारानी ही स्वयं श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिये ललिता, विशाखा, चित्रा एवं अनन्त सखियों-दासियों तथा चन्द्रावलीजी का रूप धारण कर लेती हैं। इसको कायव्यूह-निर्माण कहते हैं। अर्थात् श्रीकृष्ण को सुख पहुँचाने के लिये, तरह-तरह की लीला रच-रचकर सुख पहुँचाने के लिये राधारानी कायव्यूह की रचना करके अपने को अनन्त नित्य-गोपियों के रूप में अनादि काल से प्रकट किये हुए हैं। इन नित्य-गोपियों के यों तो अनन्त विभाग हैं, पर मुख्य विभाग श्रीराधा एवं चन्द्रावलीजी का है। श्रीराधा ही चन्द्रावलीजी हैं, पर इन दोनों के दल अलग-अलग होते हैं। उस दिन जो खण्डिता के पद पढ़े थे, वह इन्हीं दो दलों को लेकर होने वाली लीला का वर्णन था। श्रीकृष्ण जब राधारानी के पास आते हैं, तब चन्द्रावलीजी रूठकर मान करती हैं और जब चन्द्रावलीजी के पास श्रीकृष्ण चले जाते हैं, तब श्रीराधाजी रूठकर मान करती हैं। यही संक्षेप में मान लीला का सूत्र है। इसके अत्यन्त सुन्दर-सुन्दर रूप हैं एवं अत्यन्त विलक्षण-विलक्षण लीलाएँ होती हैं; सबका वर्णन कोई भी कर ही नहीं सकता; क्योंकि ये अनिर्वचनीय और अनन्त हैं। पर असल में बात क्या है, यह भी समझ लेना चाहिये। श्रीकृष्ण को अधिक-से-अधिक सुख मिले, इसलिये श्रीराधाजी एवं श्रीचन्द्रावलीजी मान करती हैं; तथा मान करने में भी कितना ऊँचा-ऊँचा भाव होता है यह आपको श्रीराधाजी के प्रेम प्रलाप की कुछ बातें लिखकर कभी समझाने की चेष्टा कर सकता हूँ। बीच में यह लिखना भूल गया कि श्रीराधा की सखियाँ ललिता आदि एवं श्रीचन्द्रावली की सखियाँ शैव्या आदि दोनों इस चेष्टा में रहती हैं कि कैसे श्रीकृष्ण को अपनी-अपनी सखी के कुंज में ले जायँ। श्रीचन्द्रावली की सखी राधारानी की सखियों की दिव्य प्रेममयी वंचना करती रहती हैं और राधारानी की सखियाँ चन्द्रावली की सखियों की वंचना करके श्रीकृष्ण को ले जाती हैं। श्रीकृष्ण को दोनों को ही प्रसन्न करना पड़ता है। उसके सामने उसकी सुननी पड़ती है, उसके सामने उसकी। यों तो यह लीला अनिर्वचनीय है और उसके किसी भी अंश को पूरा-पूरा समझना असम्भव है। पर पढ़-सुनकर जीवन पवित्र करके श्रीकृष्ण की कृपा से उनका दर्शन करने के लिये ही साधना करनी पड़ती है तथा जिन संतों को जो अनुभव हुआ है तथा ऋषि-महर्षि जो इस प्रकार की लीलाएँ शास्त्र में लिख गये हैं, उन्हीं को आधार बनाकर मेरी तुच्छ बुद्धि में जो आयेगा, लिख सकता हूँ। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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