प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 67

प्रेम सत्संग सुधा माला

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57- यदि आप अभी किसी दूरस्थित मित्र को याद करें तो उसकी मानसिक मूर्ति तो सामने आ जायगी, पर उसका शरीर यहाँ से बहुत दूर किसी अन्य स्थान में होने के कारण नहीं दीखेगा; परंतु भगवान् में यह बात नहीं है। भगवान् और भगवान् का स्मरण दो वस्तु नहीं हैं। जिस समय आप भगवान् की मूर्ति अपने मानसपटल पर लाते हैं, उसी समय वहीं पूर्ण रूप से भगवान् आपके मन में आ जाते हैं। पर वे बोलते इसलिये नहीं हैं कि आप उन्हें भावना का चित्र मान लेते हैं और थोड़ी देर बाद फिर दूसरे कामों में लग जाते हैं। यदि ठीक से कोई एक भी लीला का चित्र बाँधकर मन को उसमें डुबाये रखें तो उसी भगवान् की मूर्ति में भगवान् प्रकट हो जायँगे; क्योंकि भगवान् वहाँ पहले से ही हैं। जब तक मन नहीं लगायेंगे, तब तक ‘मैं भगवान् को चाहता हूँ’ यह कहना बनता नहीं। आप ही सोचें- धन चाहने पर मन उसमें कैसे लगता है? कौन-सी युक्ति मन लगाने की आपने किसी से पूछी थी? नहीं पूछी थी, मन की स्वाभाविक गति धन की ओर लग रही थी, क्योंकि धन की चाह थी। इसी प्रकार जहाँ भगवान् की चाह है, वहाँ मन की गति उसी ओर दौड़ेगी। धन तो चाहने मात्र से नहीं मिलता, उसके लिये न जाने कितने उद्दोग करने पड़ते हैं, फिर उद्दोग के सफल होने का निश्चय नहीं। पर इसमें केवल चाह की जरूरत है। ‘हे नाथ! तुम मुझे मिल जाओ’- यह चाह होते ही वे मिल जायँगे। आप ही सोचें- जब भगवान् का चिन्तन छोड़कर मन दूसरी चीज पर जाता है, तब उसके लिये भगवान् से अधिक मूल्य उस वस्तु का है यह नहीं? और जब उसकी कीमत आपके मन में अधिक है तो भगवान् क्यों आयें? मुझे सचमुच ज्ञात नहीं कि भगवान् के लिये सच्ची चाह कैसे उत्पन्न होती है; पर यह ठीक-ठीक जानता हूँ कि सच्ची चाह उत्पन्न होते ही वे मिल जायँगे। मैं तो अपनी बात कहता हूँ- सचमुच मुझे यही लगता है कि चाह होते ही भगवान् उस चाह को पूर्ण कर देंगे।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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