प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 60

प्रेम सत्संग सुधा माला

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49- अत्यन्त तुच्छ-से-तुच्छ पदार्थ, गंदी-से-गंदी चीज आग में पड़कर अपना समस्त मैल-अपनी समस्त दुर्गन्ध त्यागकर ठीक आग का रूप धारण कर लेती है, वह इतनी तेज हो जाती है कि वह स्वयं अपने सम्पर्क में आने वाली वस्तु को भी भस्म कर देती है। इसी प्रकार किसी भी भगवत्-प्रेमी संत से मिलिये तो सही, मिलते ही थोड़ा नहीं, पूरा-का-पूरा- सब कुछ, जो भी वे हैं, जो भी उनके हैं, सब...आपमें उतर आयेगा। आग तो जड़ है और संत चेतन ही नहीं, इस विलक्षण जाति के चेतन के रूप में रहते हैं कि उसकी कोई उपमा ही नहीं है, कोई दृष्टान्त नहीं है कि उस स्थिति को हम या आप बुद्धि के द्वारा समझ लें। जब तक आप ठीक-ठीक उसी रस में ढलक कर अपने-आप को मिटाकर उसी रस के अनुरूप नहीं हो जायँगे, तब तक स्थिति क्या है- यह समझना सम्भव ही नहीं है। बस, रस सच्चिदानन्दमय है; आप स्वयं जब तक समस्त जड़ता से सम्बन्ध नहीं तोड़ लेंगे, तब तक उस रस का आस्वाद नहीं हो सकता। अभी तो मन प्यारा लगता है। पुत्र, परिवार, धन प्यारे लगते हैं। जड़ वस्तुओं की तह-की-तह चारों ओर से लिपटी हुई है। वास्तविक आनन्द की बात छोड़ दें; संत के प्रति साधारण-से सम्बन्ध का जो फल होना चाहिये, वह भी हम लोगों में से शायद ही किसी में अभिव्यक्त हुआ हो? देखें, मैं कहता हूँ- ‘आप यह कार्य कर दें’ और संत भी मेरी तरह ठीक यही बात कहते हैं। दोनों ही शब्द हैं, पर दोनों में इतना अन्तर है कि उसकी कल्पना भी नहीं हो सकती। मेरा कहना, मेरी आवाज, उस चेतन सत्ता के आधार पर है, जिसकी संज्ञा ‘जीव’ है और जिसमें यह अहंकार वर्तमान है कि मैं हूँ; परंतु आप यह कार्य कर दें- संत के मुख के निकले हुए ये शब्द उस विलक्षण अनिर्वचनीय चेतन सत्ता के आधार पर हैं जो कहता है-

‘समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ॥’
‘सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज ।’
‘अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनंगक्ष्यसि ॥’

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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