प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 56

प्रेम सत्संग सुधा माला

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विषयासक्ति, लौकिक स्वार्थ, पारिवारिक मोह- ये व्यवधान हैं। जितनी श्रद्धा है, काफी है। यह नियम है कि वस्तुतः संत यदि कोई हो तो उसमें श्रद्धा की जरूरत नहीं है; उसकी ओर तो उन्मुख होने की जरूरत है। श्रद्धा से तो पत्थर की मूर्ति भी कल्याण कर देती है। श्रद्धा न हो और फिर ऊँची-से-ऊँची चीज मिल जाय, यही महापुरुष की विशेषता है। यहाँ फैसला श्रद्धा के तारतम्य से नहीं होता, उन्मुखता के तारतम्य से होता है। यही उन्मुखता का तारतम्य ही पारमार्थिक स्थिति के ऊँचे-नीचे स्तर की प्राप्ति में हेतु हो जाता है। यह बिलकुल आवश्यक नहीं है कि आप संत के वास्तविक स्वरुप को जानें, बिना जाने सर्वथा अन्धकार में ही रहकर यदि अपना सर्वस्व न्योछावर कर दें तो स्थिति आपको वही मिलेगी, जो जानने वालों को मिलेगी। जानने वाले को कुछ विशेष मिले, यह बात नहीं है; उन्मुख कौन अधिक है- इस बात पर ही स्थिति निर्भर है। कोई भी हो; वह कितनी मात्र में अपने-आपको मिटाकर उसकी जगह संत को बैठा देने के लिये तैयार है- यह प्रश्न है। फिर वहाँ जो वास्तविक अभिव्यक्ति अचिन्त्यशक्ति है, भगवत्-सत्ता है, वह उसको उस मात्रा में अपना लेगी। इसलिये उपर्युक्त दो बातों में एक बात कीजिये- मेरे कहने से नहीं, सर्वथा शास्त्रीय प्रमाण को देखकर। ‘तस्मिंस्तज्जने भेदाभवात्’- सूत्र को रटकर संत के ढाँचे की जगह भगवान् को देखिये। अथवा ‘हे संत, हे संत, हे संत-’यह रट लगाकर बस, सर्वथा ‘अनन्यममता विष्णौ’ की जगह ‘अनन्यममता संतचरणेषु’ कर लें। सच मानिये, एक ही फल मिलेगा।

मनुष्य का स्वाभाविक ह्रदय ऐश्वर्यप्रवण होता है और वह ज्यों-ज्यों आगे बढ़ेगा- मान लें, किसी ने संत की जगह सर्वथा भगवान् को देखकर चलना प्रारम्भ किया- त्यों त्यों स्वाभाविक ही उसके मन में भगवत्-ऐश्वर्य का उदय होगा और वह सोचेगा कि ये सर्वज्ञ हैं, सर्वसमर्थ हैं। पर इस सम्बन्ध में एक नियम याद रखना चाहिये, वह यह कि कल्याण-गुणता के अंश में (अर्थात् जगत्-उद्धार की क्रिया के सम्पादन रूप अंश में) महापुरुष की ज्यों-की-त्यों वही शक्ति है जो शक्ति अवतार में अभिव्यक्त होती है। परंतु ऐश्वर्य के प्रकाश की शक्ति श्रद्धालु की श्रद्धा पर निर्भर है। ऐश्वर्य का प्रकाश केवल उस श्रद्धालु के लिये ही होगा कि जिसका सर्वथा संशयहीन विश्वास, परिपूर्ण विश्वास संत में एकमात्र भगवान् के ही होने का हो चुका है; जिसके मन में ज़रा भी संतपने की अनुभूति अलग अवशिष्ट है, उसके लिये बेधड़क प्रकाश नहीं होगा।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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