प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 51

प्रेम सत्संग सुधा माला

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भजन करने से अन्तःकरण का मल मिट जायगा और मल मिटा कि बस, विक्षेप और आवरण तो बहुत ही आसान चीजें हैं। X X X X X X ने एक बार बड़े प्रेम से कहा था- मनुष्य को केवल एक काम करना है; भजन के द्वारा मल का नाश कर देना; बिलकुल इतना ही काम उसको करना पड़ेगा और यह काम उसे ही करना पड़ेगा। रहा विक्षेप अर्थात् मन की चंचलता, इसे दूर कर देंगे संत तथा भगवान् ने जो पर्दा डाल रखा है, उसे हटाकर वे सामने आ जायँगे। ‘यही आवरणभंग है।’ दृष्टान्त दिया था- जैसे दर्पण है, उस पर चिकटा मल चढ़ा है, वह हिल रहा है और पर्दे लगे हैं। अब रगड़-रगड़कर साफ़ कर दो- बस, तुम्हारा इतना ही काम है। संत नीचे-ऊपर पेंच कसकर हिलना-भटकना नष्ट कर देंगे! भगवान् पर्दा हटा देंगे। बस, फिर मुख स्पष्ट दीखने लग जायगा। रगड़ने से यदि परिश्रम का अनुभव हो तो साबुन से धो दो। निरन्तर नाम का जप सहज साबुन है। मन की मलिनता ही भगवान् का आनन्द नहीं लेने देती। अभी आपने लीला की, तत्व की इतनी बातें सुनीं; पर इनका आनन्द सबको एक समान नहीं मिला होगा। इसमें एकमात्र हेतु है मन की मलिनता की घनता। जिसका मल जितना अधिक घन है, उतना ही इन बातों का आनन्द वह नहीं उठा सकेगा। नहीं तो, इतनी देर की बातचीत में श्रीकृष्ण का नाम जितनी बार आया, जब-जब उनके गुणों की बात आयी और वृत्ति ने उसे पकड़ा, उतनी-उतनी बार ह्रदय पिघलकर बहने-सा लगा होता। आप पद सुनते हैं-

‘कृष्ण नाम जब ते मैं श्रवन सुन्यौ री आली,
भूली री भवन हौं तो बावरी भई री।’

इसमें रत्ती भर भी अत्युक्ति नहीं, न यह निरी भावुकता की बात है। बिलकुल सत्य है। यही दशा श्रीगोपीजनों की श्रीकृष्ण के नाम-रूप-गुण की स्मृति-श्रवण से हो जाती है।

आन्तरिक प्रेम के चिन्ह बाह्य शरीर पर प्रकट हो जाते हैं और उनका शास्त्रों में विस्तार से वर्णन है। आज भी सच्चे प्रेमियों में वे चिन्ह प्रकट होते हैं। एक रघुबाबा गोरखपुर में थे। उनमें ‘तनुता’ का प्रकाश हुआ था और भी कई प्रेम विकार उनके शरीर पर स्वयं भाईजी ने समय-समय पर देखे। प्रेम पथ की बात ही निराली है। साध्य-साधक एकमात्र श्रीकृष्ण होंगे, वहाँ से पथ शुरू होगा। अभी तो जड़ ‘शरीर का आराम’ और ‘नाम का मोह’ पग-पग पर पछाड़ रहा है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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