प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 27

प्रेम सत्संग सुधा माला

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(3) अपराधजात अनर्थ—दस प्रकारके नामापराध एवं चौंसठ प्रकार के सेवापराधों से, जहाँ तक हो बचना चाहिये। ये इतने भयानक दोष हैं कि ‘बहुत ऊँचे उठे हुए साधकों को भीनीचे गिरा देते हैं। इनसे बचने का उपाय है—सच्चे मन से भगवान् से प्रार्थना करना कि ‘हे नाथ! मुझे अपराध से बचाओ।’ तथा जान-बूझकर कभी अपराध न करने की पूरी चेष्टा करना। अब तक बहुत अपराध हो चुके हैं और अब भी होते हैं, इसीलिये रास्ता रुक रहा है।’

(4) भक्तिजात अनर्थ—यह विघ्न आपको कम सतायेगा। यह हमारे-जैसे संन्यासी तथा साधकों को बहुत तंग करता है। यह है भक्ति करके उसके द्वारा सम्मान-बड़ाई, पूजा-प्रतिष्ठा चाहना। इससे भी मार्ग रुक जाता है।

इन चारों अनर्थोंसे बचते हुए उपर्युक्त सातों को धारण करने की चेष्टा करें। खुशामद की बात दूसरी है; परसच बात तो यह है कि रास्ता तय करना हो तो फिर ये काम अवश्य कीजिये। मेरा तो कुछ नहीं बिगड़ेगा, मैं आपसे जो बातें कहूँगा, उनसे मेरा तो लाभ ही होगा।पर आपका रास्ता मेरी समझ से तो तभी तय होगा, जब आप कमर कसकर चलने के लिये तैयार हो जायँगे।

धन, स्त्री शरीर का अभिमान रत्ती-रत्ती चूर हुए बिना रास्ता नहीं कटेगा। खूब तेजी से चलिये, नहींतो मर जाइयेगा। मरते समय चित्त की वृत्ति जहाँ रहेगी, वहीँ आप चले जायँगे। मकान, रुपया, धन, परिवार, मान-बड़ाई— सब-के-सब या तो आपको पहले ही छोड़ देंगे या आप इनको छोड़कर चले जायँगे। विष्ठा-मूत्र से भरा हुआ यह शरीर मिट्टी में मिल जायगा। इसे जानवर खा जायँगे तो यह विष्ठा बन जायगा। जलाया जायगा तो इनकी राखहो जायगी और गाड़ दिया गया तो सड़कर कीड़ों के रूप में परिणत हो जायगा। इसके आराम की तथा विलास की चिन्ता छोड़िये।

ये बातें केवल सुनने की नहीं हैं, करने से होगा, बड़ी तत्परता से करने पर होगा। नहीं तो सुनते रहिये— न शान्ति मिलेगी, न दुःख मिटेगा। प्रेम तो कहाँ से मिलेगा!

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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