प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 21

प्रेम सत्संग सुधा माला

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एक बहुत बड़े धनी के यहाँ यज्ञ था। हजारों ब्राम्हणों का निमन्त्रण था। ठीकजीमने के अवसर पर वे ही बूढ़े बाबा पहुँचे और बोले—‘जयहो दाता की। एक पत्तल हमें भी मिल जाय। बहुत भूखा हूँ।’ लोगों ने पूछा—‘आपको निमन्त्रण मिला है?’ ब्राम्हण बोले—‘निमन्त्रण तो नहीं मिला, पर हूँ बहुत भूखा; बड़ा पुण्य होगा।’ ब्राम्हण की एक बात भी उन लोगों ने नहीं सुनी। आखिर ब्राम्हण जबर्दस्ती एक पत्तल लेकर बैठ गये। अब तो धनिक बाबू के क्रोध का पार नहीं रहा। उन्होंने हाथ पकड़कर ब्राम्हण को निकलवा दिया। पटेल देख रहे थे। बूढ़े ब्राम्हण पटेल को इशारा करके कह रहे थे—देखा— ‘हमारा सत्कार कैसा होता है?’ फिर कहा—‘अब देखो क्या होता है।’ उसी समय बहुत जोर की आँधी आयी, बड़े-बड़े ओले गिरने लगे। सारा यज्ञ नष्ट हो गया! एक ब्राम्हण भी भोजन नहीं कर सका। कथा बहुत विस्तार से एवं लम्बी है। सारांश यह कि किसी भी दुःखी को देखकर उसमें विशेष रूप से भगवान् को देखना चाहिये।

21- असल में तो आर्त भक्त, अर्थार्थी भक्त भी बनना कठिन है। कोई सच्चा आर्त, सच्चा अर्थार्थी होजाय, तब तो फिर क्या पूछना! उसका दुःख भी मिट जाय एवं भगवान् को पाकर वह कृतार्थ भी हो जाय— इसमें तनिक भी संदेह नहीं है। आर्त भक्त हो चाहे अर्थार्थी, उसमें अनन्यनिष्ठा होनी ही चाहिये। अनन्यनिष्ठा का अर्थ यह कि और सभी पर से— सभी साधनों पर से भरोसा उठाकर मन में यह निश्चय कर ले कि ‘मेरा यह काम तो भगवान् ही पूरा करेंगे।’ मान लें हमें कोई बिमारी है। अब यदि ठीक-ठीक मन में यह निश्चय हो कि यह बिमारी प्रभु से ही दूर करवानी है तो निश्चय मानिये प्रभु उसे दूर कर देंगे। पर यदि कोई कहता है कि प्रभु तो दूर करेंगे ही, पर निमित्त तो दवा बनेगी। तो समझ लीजिये कि असल में उसका विश्वास भगवान् पर नहीं है, विश्वास दवा पर है। फिर भगवान् भी जब अच्छा करेंगे तब सीधे जादू की तरह नहीं करेंगे किसी दवा से ही करेंगे। ऐसा न होकर यदि यह धारणा कर लें कि दवा से क्या होगा, प्रभु अच्छा करेंगे; तो सच मानिये बिना दवा के कठिन-से-कठिन रोग— जिसका अच्छा होना असम्भव मान लिया गया है, अच्छा हो सकता है और एक क्षण में ऐसा हो सकता है मानो उस बीमारी का कोई चिन्ह भी नहीं रह गया हो— मानो वह बीमारी कभी हुई न थी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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