प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 16

प्रेम सत्संग सुधा माला

Prev.png

इस मन से ही तो लड़ना है। इसी में तो बहादुरी है। इससे कहिये—‘यार! अनादि-काल से तेरे कारण ही मैं श्रीकृष्ण से बिछुड़ा हुआ हूँ। पर अब श्रीकृष्ण की कृपा से तुझे मैं श्रीकृष्ण के पास ले जाकर निहाल कर दूँगा। स्वयं निहाल हो जाऊँगा। यह न करके आप मन का कहा करेंगे तो फिर तो, यह अभी आपको भवन देखने के लिये कहता है, फिर बाजार देखने को कहेगा, दूकान सँभालने के लिये कहेगा। इस पर तो शासन करना होगा। चतुराई से जैसे यह आपको धोखा देता है, वैसे ही चतुराई से आप इसे बाँध लीजिये। जब यह बहुत अड़ जाय कि मैं तो अमुक चीज देखूँगा ही और वह पाप की बात न हो तो दिखा दीजिये। पर उसके साथ ही किसी-न-किसी रूप में श्रीकृष्ण को भी जोड़े रखिये, जिससे उस जहर का असर न हो।

अत्यन्त प्रेम से कहता हूँ, कोई बात अनुचित हो तो क्षमा कीजिये। प्रेमवश कह रहा हूँ। इस शरीर को बिलकुल मन से उतार देने की चेष्टा करनी चाहिये। मामूली सर्दी-गर्मी भी यदि सहन नहीं होगी तो फिर वृन्दावन में जीवन कैसे बीतेगा? वहाँ तो मच्छर खूब काटेंगे। पानी गरम-गरम पीने को मिलेगा। पास में यदि पैसा न रहा तो खाने का भी ठिकाना नहीं कि रोज मिले ही। फिर यदि पित्त गरम होने की परवा बनी रही तो व्रज में वास कैसे कर सकेंगे। इसकायह अर्थ नहीं कि खाये-पीये नहीं। अच्छी तरह खाइये, पर मन से ये चीजें उतर जायँ। लू चल रही है। अब बार-बार सोचिये—‘अरे बाप रे! बहुत लू चल रही है’ तो अशान्ति बढ़ेगी। यह न करके सोचिये—‘अहा! क्या ही सुन्दर जीवन दो दिन के लिये मिला है, घर रहते तो इस लू का आनन्द कहाँ मिलता।’ फिर मन में आनन्द होने लगेगा।

भागवत में कहा है—‘आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, नक्षत्र, सभी प्राणी, सभी दिशाएँ, सभी वृक्ष, सभी नदियाँ, नद-समुद्र— ये सब-के-सब, चाहेअचर हों या चर हों— कोई भूत हो— सब श्रीकृष्ण के शरीर हैं, यों मानकर अनन्य भाव से सबको प्रणाम करे। अब लू चल रही है, गरमी है; उसमें आग है ही तथा वायु भी है। यदि यह भावना हो जाय कि अग्नि एवं वायु रूप से मेरे शरीर को श्रीकृष्ण ही छू रहे हैं तो कितना आनन्द हो।

Next.png


टीका टिप्पणी और संदर्भ

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः