प्रेम सत्संग सुधा माला
‘घर-द्वार सब छूट जायगा, हमारे सम्बन्धीजन रोते-बिलखते रह जायँगे और फिर हम उन्हें नहीं मिलेंगे, हम कपड़ा रँगकर साधु-संन्यासी ही बन जायँगे।’ यह मतलब नहीं है; किन्तु यह अवश्य है कि यह संसार मन से तो सचमुच-सचमुच निकल ही जायगा। फिर हम पर असर ही नहीं पड़ेगा इस संसार के किसी चढ़ाव-उतराव का। अभीतो हमारी यह दशा है कि क्षुद्र-से कारण भी क्षण-क्षण में हमारे मन का नक्शा पलटते रहते हैं और फिर भी हम कहते हैं कि हमें रामायण की कथा, भागवत की कथा से बढ़कर अधिक प्रिय कोई वस्तु है ही नहीं। यह‘आत्मवंचना’ है। यदि हम आत्मशोधन करें तो स्वयं पता लग जायगा कि इसे ‘आत्मवंचना’ कहना सोलह आना ठीक है कि नहीं। भगवत्कथा के इस माहात्म्य को ध्यान में रखकर इस पर ध्यान देते हुए यदि हम कहीं कथा सुनने जायँगे तो एक-दो बार ही जाने की जरूरत होगी। फिर तो जीवन भगवान् की ओर ऐसा मुड़ेगा कि हम स्वयं ही दंग रह जायँगे। अतिशयोक्ति नहीं है, कोई करके देखना चाहे तो साहसबटोरकर देख सकते हैं। किंतु सोडावाटर के जोश की तरह साहस न बटोरें, लहराते हुए समुद्र की साहस लेकर आगे कदम बढ़ायें। समुद्र वहीं रहता है, लहरा उठता है बड़े वेग से; किनारा ऊँचा रहने पर टकराता है, उससे बार-बार घंटों तक और फिर मानो थककर पीछे की ओर हट जाता है। किंतु कुछ ही घंटों के लिये पीछे हटता है। ‘वह तो आयेगा ही, उसी दिन ही एक सुनिश्चित अवधि के अन्तर में अवश्य आयेगा- किनारे को मानो डुबा देने के लिये।’ ऐसासाहसलेकर जायँ- पीछे पछताने की मनोवृत्ति को सर्वथा सदा के लिये जलांजलि देकर, ठंढे पड़ जाने की आदत को आग में जलाकर। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज