प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 14

प्रेम सत्संग सुधा माला

Prev.png

इन दोनों में अत्यन्त सहायक होता है— निरन्तर नाम का अभ्यास। पर सब बात इसी पर निर्भर है कि हमारे जीवन का एकमात्र लक्ष्य भगवान् बन जायँ।यह ठीक-ठीक समझ लें कि जब तक कई और-और लक्ष्य रहेंगे, तब तक रास्ता कट जाने पर भी वह स्थिति सामने आने में बहुत विलम्ब लगेगा और जीवन भर कुछ-न-कुछ अशान्ति बनी ही रहेगी। एकमात्र लक्ष्य भगवान् हो जायँ तथा फिर जो भी चेष्टा करें, वह यह ध्यान में रखकर करें कि यह चेष्टा मुझे अपने लक्ष्य से गिराने वाली है या उठाने वाली, तबफिर रास्ता बड़ी शीघ्रता से कटेगा। उदाहरण के लिये आप...गये। वहाँ जाकर दिन-रात में आपने अनेकों चेष्टाएँ कीं, खाया-पिया, घूमे, सोये, लोगों से मिले। अब विचार करके देखें कि आपने जो भी चेष्टाएँ की हैं, उनमें कौन-सी चेष्टा किस उद्देश्य को लेकर की है। आपने रास्ते में किसी सज्जन से बात की। अब बात करते समय आपका एकमात्र लक्ष्य यदि श्रीकृष्ण होंगे तो आपके मन की दशा दो में से एक प्रकार की होगी। या तो आपको उक्त सज्जन के रूप में श्रीकृष्ण की अनुभूति होगी और बात करते-करते आप आनन्द में मुग्ध होते रहियेगा। अथवा मन बिलकुल उपराम रहने से उस समय ऊपरी मन से तो आप बात करेंगे और भीतरी मन आपका श्रीकृष्ण के रूप में, गुणों में, लीलाओं में लगा रहेगा। ऐसा न होकर यदि आपका और कुछ भाव रहता है तो साफ़-साफ़ यह बात समझ सकते हैं कि आपका लक्ष्य श्रीकृष्ण नहीं हैं। देखें, दिव्य वृन्दावन से सुन्दर यह स्थान नहीं है। दिव्य वृन्दावन के महलों से अधिक सुन्दर यहाँ का कोई भी भवन नहीं है। पर जब आपका मन इस भवन के देखने पर चलता है, तब फिर यह समझ लेना चाहिये कि अभी तो यह वृन्दावन देखना ही नहीं चाहता; क्योंकि यह नियम है कि लक्ष्य श्रीकृष्ण हो जाने पर दिन-रात मस्तिष्क यही सोचता रहेगा कि कैसे वह रास्ता तय हो। उस समय यहाँ का भवन आपको सुहायेगा नहीं। हाँ, यदि यह भाव हो कि सब कुछ श्रीकृष्ण की लीला है, तब तो कुछ कहना बनता ही नहीं। पर इसमें भी एक सावधानी की आवश्यकता है।


Next.png


टीका टिप्पणी और संदर्भ

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः