प्रेम सत्संग सुधा माला पृ. 108

प्रेम सत्संग सुधा माला

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एक बहुत सुन्दर लीला आती है- भगवान् द्वारका में गद्दी पर बैठे हैं तथा कुछ ग्वालिनें दही के मटके लिये दरबार में आती हैं। भगवान् तो सब जानते हैं- पहले अदब से बात होती है। फिर गोपियाँ कहती हैं कि ‘चलो वृन्दावन में, यहाँ गद्दी से उतरो।’ सारा दरबार ठक् हो जाता है कि भला, ये गँवारी ग्वालिनें कितनी बढ़-बढ़कर बातें कर रही हैं। श्रीकृष्ण थोड़ा और भी रंग जमाते हैं। गोपियाँ कहती हैं कि ‘हम राधारानी की दासियाँ हैं; यदि सीधे मन से नहीं चलोगे तो फिर दस्तावेज निकालना पड़ेगा!’ (श्रीकृष्ण ने एक दस्तावेज लिख दिया था कि मैं आजीवन राधारानी का गुलाम रहूँगा।) श्रीकृष्ण खूब हुज्जत करते हैं कि हमें याद नहीं कि हमने कहाँ क्या दस्तावेज लिखा है। फिर गोपियाँ दस्तावेज निकालकर श्रीकृष्ण की सही दिखलाती हैं और गद्दी से उतार देती हैं। सारा दरबार चकित रह जाता है। श्रीकृष्ण पीछे-पीछे चल पड़ते हैं। अब सोचिये, वृन्दावन के महल की दासी उनकी इच्छा से ही दरबार में आती है तथा तरह-तरह की लीला करती है, पर लीला देखकर यह अनुमान भी नहीं हो सकता कि ये ही राजराजेश्वर श्रीकृष्ण वृन्दावन की गोपियों के दास हैं। ये अप्रकट लीलाएँ प्रेमी भक्त संतों के नेत्र गोचर होती हैं, ग्रन्थों में पूरी नहीं पायी जातीं।

और ये लीलाएँ कुछ इतनी ऊँची हैं कि मन जब तक बिलकुल पवित्र नहीं हो जाता, तब तक इनके रहस्य का अनुमान लगाना भी बड़ा ही कठिन होता है। किसी भी दृष्टान्त से इसके वास्तविक रहस्य को समझा नहीं जा सकता।

79- भगवान् की लीलाएँ अनन्त हैं। उनमें किसी में भी मन लग जाने पर तो महीने-के-महीने बीत जाते हैं, एक ही ध्यान बँधा रह जाता है। पता ही नहीं लगता कि क्या हो रहा है। समाधि हो जाती है। परंतु जब तक ऐसी अवस्था नहीं हो जाती, तब तक चंचल मन को वश में करने के लिये दस-बारह लीलाएँ चुन लेनी चाहिये तथा खूब कड़ाई से समय बाँध लेना चाहिये कि इतने समय से लेकर इतने समय तक यह लीला, फिर यह लीला, फिर यह। इस प्रकार जागने से सोने तक मन-ही-मन चिन्तन का तार चलता रहे। बाहर तो सुन रहे हैं, पोथी पढ़ रहे हैं, किसी से बात कर रहे हैं अथवा बैठकर नाम-जप कर रहे हैं, पर भीतर का काम भी चलते ही रहना चाहिये। खूब चेष्टा करने से भगवान् की कृपा होने पर ऐसा बड़ी आसानी से हो सकता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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