प्रेमी जन मुक्ति न लहै -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

प्रेम तत्त्व एवं गोपी प्रेम का महत्त्व

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राग पीलू - ताल कहरवा


प्रेमी का स्वरूप


प्रेमी जन मुक्ति न लहै, प्रेमरूप हरि त्याग।
स्याम बदन देखै सदा, परम सुखी बड़भाग॥79॥
सनमुख मारै मोरचा, सिर पर बरछी लेय।
प्रेमी पन छाँड़ै नहीं, हरि हित जीवन देय॥80॥
जियै तौ हरि हित ही जियै, मरै तौ हरि हित लागि।
दह्यौ करै बिरहागि में, सरबस देवै त्यागि॥81॥
प्रेमी पहिचानत नहीं एक स्याम बिनु और।
सोवत-जागत जगत में स्याम सदा सब ठौर॥82॥
लोक-बेद सब ही तजै, भजै रैन-दिन स्याम।
सीस समरपै मुदित मन, एक प्रेम के नाम॥83॥
तनु काटै, खंडित करै, खुसी खवावै काग।
जो रुचि देखै पीय की, कौन बड़ी यह त्याग॥84॥
प्रेम कहै, प्रेमहि सुनै, प्रेम निहारै नैन।
प्रेम चखै, प्रेमहि भखै, प्रेम लखै दिन-रैन॥85॥
बड़भागी जिन के हिये, बिंध्यौ प्रेम कौ बान।
तिन कौं तनिक न सुधि रही, बिसरि ग‌ए सब ग्यान॥86॥
तन-मन-धन-सब में तुमहि, सबै तुहारे काज।
भावैं ज्यौं बरतौ इनै, प्रेम-सिंधु ब्रजराज॥87॥
भोग-मोच्छ सौं रति नहीं, सब सौं सदा बिराग।
पै प्रीतम-छबि सौं सतत बढ़त जात अनुराग॥88॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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