प्रेमी उद्धव का सख्यभाव 3

प्रेमी उद्धव का सख्यभाव

भगवान की आज्ञा पाकर उद्धव जी बदरिकाश्रम को चले। भगवान अपने परमधाम पधारे। उद्धवजी के हृदय में भगवान का वियोग भर रहा था, अतः उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लगता था। वे खूब रोते थे। किंतु रोना भी किसी हृदय के सामने हो तो हृदय हलका होता है। दैवयोग से उद्धवजी को विदुर जी मिल गये। विदुर जी ने पूछा-‘यदुवंश के सब लोग कुशलपूर्वक तो हैं?’ यदुकुल का नाम सुनते ही उद्धव जी ढाह बाँधकर रो पड़े और रोते-रोते बोले-

कृष्णद्युमणिनिम्लोचे गीर्णेष्वजगरेण ह्।
किं नु न: कुशलं ब्रूयां गतश्रीषु गृहेष्वहम्‌।।
दुर्भगो बत लोकोऽयं यसवो नितरामपि।
ये संवसंतो न विदुर्हरिं मीना इवोडुपम्‌।।[1]

‘कृष्णरूपी सूर्य के अस्त होने पर, कालरूपी सर्प के ग्रसे जाने पर हे विदुर जी! हमारे कुल की अब कुशल क्या पूछते हो? यह पृथ्वी हतभागिनी है और उनमें भी ये यदुवंशी सबसे अधिक भाग्यहीन हैं, जो दिन-रात पास में रहने पर भी भगवान को नहीं पहचान सके, जैसे समुद्र में रहने वाले जीव चन्द्रमा को नहीं पहचान सकते।’ इसके बाद उद्धव जी ने यदुवंश के क्षय की सब बातें सुनायीं।

उद्धवजी परम भागवत थे, ये भगवान के अभिन्नविग्रह थे। इनके सम्बन्ध में भगवान ने स्पष्ट कहा है-

अस्माल्लोकादुपरते मयि ज्ञानं मदश्रयम्‌ ।
अर्हत्युद्धव एवाद्धा सम्प्रत्यात्मवतां वर:।।
नोद्धवोऽण्वपि मन्न्यूनो यद्गुणैर्नार्दित: प्रभु:।
अतो मद्वयुनं लोकं ग्राहयन्निह तिष्ठतु।।[2]

‘मेरे इस लोक से चले जाने के पश्चात् उद्धव मेरे ज्ञान की रक्षा करेंगे। उद्धव मुझसे गुणों में तनिक भी कम नहीं हैं, अतः वे ही सबको इसका उपदेश करेंगे।’ जिनके लिये भगवान ऐसा कहते हैं, उनकेे भगवत्प्रेम के सम्बन्ध में क्या कहा जा सकता है!


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 3।2।6-7
  2. श्रीमद्भा. 3।4।30-31

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