प्रेमी उद्धव का सख्यभाव 2

प्रेमी उद्धव का सख्यभाव

उनके ऐसे अलौकिक प्रेम को देखकर उद्धवजी अपना समस्त ज्ञान भूल गये और अत्यन्त करुणा स्वर में कहने लगे।

वन्दे नन्दव्रजस्त्रीणां पादरेणुमभीक्ष्णश:।
यासां हरिकथोद्गीतं पुनाति भुवनत्रयम्‌।।[1]

‘मैं इन व्रजांगनाओं की चरणधूलि की भक्तिभाव से वन्दना करता हूँ, जिनके द्वारा गायी हुई हरि-कथा तीनों भुवनों को पावन करने वाली है।’ व्रज में जाकर उद्धवजी ऐसे प्रभावित हुए कि वे सब ज्ञान-गाथा भूल गये।

भगवान के द्वारका पधारने पर ये भी उनके साथ गये। यदुवंशियों के मन्त्रिमण्डल में इनका भी एक प्रधान स्थान था। इनकी भगवान में अनन्य भक्ति भी। जब इन्होंने समझा कि भगवान अब इस लोक की लीला का संवारण करना चाहते हैं, तब ये एकान्त में जाकर बड़ी दीनता के साथ कहने लगे-

नाहं तवांघ्रिकमलं क्षणार्धमपि
त्यक्तुं समुत्सहे नाथ स्वधार नय मामपि[2]

‘हे भगवन! हे नाथ! मैं आपके चरणों से आधे क्षण के लिये भी अलग होना नहीं चाहता। मुझे भी आप अपने साथ ले चलिये।’ भगवान ने कहा-‘उद्धव! मैं इस लोक से इस शरीर द्वारा अन्तर्हित होना चाहता हूँ। मेरे अन्तर्हित होते ही यहाँ घोर कलियुग आ जायगा। इसलिये तुम बदरिकाश्रम को चले जाओ और वहाँ तपस्या करो। तुम्हें कलियुग का धर्म नहीं व्यापेगा।’

भगवान की ऐसी ही मर्जी है, यह समझकर उद्धवजी चले तो गये, किंतु उनका मन भगवान की लीलाओं में ही लगा रहा। जब सब यादव प्रभासक्षेत्र को चले गये तो भगवान की अन्तिम लीला को देखने विदुर जी भी प्रभाव में पहुँचे। तब तक समस्त यदुवंशियों का संहार हो चुका था। विदुर जी ढूँढते-ढूँढते भगवान के पास पहुँचे। भगवान सरस्वती नदी के तट पर एक अश्वत्थवृक्ष के नीचे विराजमान थे, विदुर जी ने रोते-रोते उन्हें प्रणाम किया। दैवयोग से पराशर के शिष्य मैत्रेय जी भी वहाँ आ गये। दोनों को भगवान ने इस समस्त जगत की सृष्टि, स्थिति, प्रलय का ज्ञान कराया और इस अन्तिम ज्ञान को विदुर जी के प्रति उपदेश करने के लिये भी भगवान आज्ञा कर गये।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भा. 10/47/63
  2. श्रीमद्भा. 11/3/43

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