- श्रीकृष्ण-
(रसिया)
- भक्तन के जो प्रेम के आँसू, तिनको जग में मोल न तोल।
- जग में मोल न तोल, वे तौ मोकूँ लेत हैं मोल।।
या संसार में आँसू कौन नहीं बहावै है, तथापि आँसू-आँसून में भेद होय है। कोई तौ आँसू जगत के लिए बहावै है। और कोई मो जगत-पति के लियें बहावै है। इनमें एक कौ नाम है मोह और दूसरे कौ नाम है प्रेम। मोह संसार में फसावै है, और प्रेम संसार कूँ नसावै है। मोह तमोगुन है, प्रेम निर्गुन है।
मोह के आँसू तौ सब ही बहावै हैं, किंतु प्रेम के आँसू कितने बहावैं हैं। स्त्री-पुत्र-धन के बियोग में तो झट्ट ही आँसू निकसि आवैं हैं। परंतु मेरे बियोग में भलौ, कितनेन के आँसू निकरैं हैं। बीच बजार में ‘हाय बेटा, हाय बाबा’ कहिकैं माथौ कूटि-कूटि कैं छाती फारि-फारि कैं रोयबेवारे तौ बहुत मिलैंगे। परंतु मेरे बियोग में मेरी याद करिकैं। ‘हा नाथ, हा प्राननाथ, हा स्याम प्यारे’ कहि-कहि कैं माथौ फोरिबे वारौ, छाती फारिबेवारौ ढूँढ़ेबे पै बिरलौ ही कहूँ कोई मिलैगौ।
अजी, माथौ फोरिबे की बात तौ दूर रही, दो बूँद आँसू बहायबे में हूँ लज्जा लगै है। यदि भाग्य सौं कहूँ सत्संग-कथा-कीर्तन में हृदय पिघलि कैं नेत्र बहिबे हूँ लगैं हैं तौ झट्ट ही वाकूँ दबाय जायँ हैं कि कोई कहूँ देख न लेय, कोई हँसै नहीं। कोई यौं न कहि बैठै कि याकौ तो बड़ौ ही दुर्बल चित्त है। यह पुरुष कैसौ, जो स्त्री की नाईं रोवै है- इत्यादि। या प्रकार संसार के लिए रोयबे में लज्जा नहीं, हँसी नहीं, कमज़ोरी नहीं। किंतु मेरे लियें रोयबे में ही सबरी गड़बड़ी है।
याकौ कारन कहा है? क्यों जीव मेरे लियें व्याकुल-पागल नहीं होय है? याकौ कारन केवल इतनौ ही है कि जीव कौ मोते कोई प्रयोजन नहीं है। और प्रयोजन बिना मूर्ख हू एक पग नहीं हलावै है- ‘प्रयोजनमनुद्दिश्य न मन्दोऽपि प्रवर्तते।’ जीव कौ प्रयोजन तो है धन सौं, स्त्री सौं, पुत्र-परिवार सौं, भाई-बंधु-यार सौं। वैसैं तौ नित्य मोते कहै है- ‘त्वमेव माता च पिता त्वमेव त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव।’ ‘हे प्रभो!