कृष्णांक
प्रेमावतार श्रीकृष्ण
अखण्ड ब्रह्माण्ड नायक सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् पूर्णब्रह्म ने अपनी रची हुई सृष्टि में जब-जब मर्यादा का अतिक्रम होता देखा तब-तब ही उसकी स्थापना के लिये जहाँ जैसी आवश्यकता हुई, उसी के अनुकूल शरीर धारण किया। इस बात का वर्णन भगवान व्यासजी ने देव स्तुति में इस प्रकार किया है – मत्स्याश्वकच्छपवराहनृसिंहहंस- ‘हे यदुश्रेष्ठ ! मत्स्य, अश्व, कच्छप, वराह, नृसिंह, हंस, क्षत्रिय, वैश्य और देवता आदि शरीर में अवतार धारण कर आप जैसे कि इस समय कर रहे हैं उसी प्रकार सर्वदा हमारी रक्षा करते हैं। प्रभो ! आप पृथ्वी का भार दूर कीजिये, हम आपको नमस्कार करते हैं’। इस प्रकार गीतों में की हुई अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार साधुओं की रक्षा, दुष्टों के नाश और धर्म-संस्थापन के लिये भगवान समय-समय पर संसार में नाना रूपों में अवतार लेते हैं। परन्तु श्रीकृष्णावतार का महत्व केवल इतने से ही नहीं है। उसमें यह विशेषता और भी है कि इस अवतार में भगवान ने जो प्रेममयी मधुर लीलाएं की हैं, उनके गान, श्रवण और कीर्तन की नौका पर आरूढ होकर पापिष्ठ पुरुष भी अपार संसार-समुद्र को पार कर जाते हैं। इस विषय में भगवान व्यास जी का भी यही मत है कि– संसारसिन्धुमतिदुस्तरमुत्तितीर्षो- ‘नाना दु:खरूप दावानल से पीड़ित पुरुष को इस संसार रूप दुस्तर समुद्र से पार होने के लिये भगवान की लीलाओं के कथामृत पान करने के अतिरिक्त और कोई मौका ही नहीं है’। भगवान श्रीकृष्णचन्द्र का अवतार इसी उद्देश्य को सामने रख कर हुआ है। यदि यह प्रेमावतार न हुआ होता तो आज व्यास, सूर जयदेव-प्रभृति कवियों की काव्य-लतिका इस प्रकार पल्लवित होती या नहीं, इसमें भी सन्देह है। भगवान का रूप, आकृति, चरित्र, बल-पौरुष तथा खान-पान, रहन-सहन, बोलचाल आदि सभी क्रियाएं प्रेमरस से ऐसी सराबोर हैं कि एक बार भी सुनने या पढ़ने पर मनुष्य उन्हें छोड़ नहीं सकता। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
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