प्रेमवाटिका -रसखान पृ. 8

प्रेमवाटिका -रसखान

दोहा 36-40

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हरि के सब आधीन पै, हरी प्रेम-आधीन।
याही तें हरि आपुहीं, याही बड़प्‍पन दीन।।36।।

वेद मूल सब धर्म यह, कहैं सबै श्रुतिसार।
परम धर्म है ताहु तें, प्रेम एक अनिवार।।37।।

जदपि जसोदानंद अरु, ग्‍वाल बाल सब धन्‍य।
पे या जग मैं प्रेम कौं, गोपी भईं अनन्‍य।।38।।

वा रस की कछु माधुरी, ऊधो लही सराहि।
पावै बहुरि मिठास अस, अब दूजो को आहि।।39।।

श्रवन कीरतन दरसनहिं जो उपजत सोई प्रेम।
शुद्धाशुद्ध विभेद ते, द्वैविध ताके नेम।।40।।

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