प्रेमवाटिका -रसखान पृ. 6

प्रेमवाटिका -रसखान

दोहा 26-30

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प्रेमफाँस मैं फँसि मरे, सोई जिए सदाहिं।
प्रेममरम जाने बिना, मरि कोई जीवत नाहिं।।26।।

जग मैं सबतें अधिक अति, ममता तनहिं लखाय।
पै या तरहूँ तें अधिक, प्‍यारी प्रेम कहाय।।27।।

जेहि पाए बैकुंठ अरु, हरिहूँ की नहिं चाहि।
सोइ अलौकिक शुद्ध सुभ, सरस सुप्रेम कहाहि।।28।।

कोउ याहि फाँसी कहत, कोउ कहत तरवार।
नेजा भाला तीर कोउ, कहत अनोखी ढार।।29।।

पै मिठास या मार के, रोम-रोम भरपूर।
मरत जियै झुकतौ थिरैं, बनै सु चकनाचूर।।30।।

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