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(लेखक– श्रीयुत् सदानन्द जी सम्पादक ‘मेसेज’)
श्रीकृष्ण का जीवन प्रेम का जीवन है, श्रीकृष्ण का संगीत प्रेम का संगीत है, श्रीकृष्ण की शिक्षाएं प्रेमतत्वों से परिपूर्ण हैं। गोपाल-कृष्ण ने दरिद्र ग्वालबालों से सरल और भोले-भाले साथियों से मित्रता की और अपने प्रेमबल से उसने उनके मन और आत्मा को ऐसा मोह लिया कि उनकी आत्माएं कृष्ण की आत्मा में मिलकर एक हो गयी थीं। कृष्ण उनका नेता, अधिपति, मित्र एवं आराध्यदेव बना हुआ था वह उनके लिये केवल उनके प्रेम और श्रद्धा का ही पात्र नहीं बल्कि इससे भी महत्तर व्यक्ति था। श्रीकृष्ण ने अपने राजसी वस्त्रों को उतार दिया और हाथ में लकुटी लेकर वह वृन्दावन के पुण्य क्षेत्रों में अपनी सखामण्डली के साथ गौएं चराने के लिये निकल पड़ा। इस सुरम्य वन में धेनु चराते-चराते उसने एक कदम्ब वृक्ष पर चढ़कर अपनी सोने या चांदी की नहीं बल्कि बांस की वंशी की सुरीली तान छेडी, जिसकी माधुरी ने सभी चराचर प्राणियों को वशीभूत कर लिया। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि यह वंशी उसके प्राथमिक जीवन का प्रधान अंग रही। जिन्होंने सरलता के मूर्ति स्वरूप बालकों के आनन्दमय सहवास का अनुभव किया है, और जो सजीव प्रेम के जीवनप्रद वायुमण्डल में विचरे हैं वे ही श्रीकृष्ण के बालजीवन को समझ सकते हैं।
इसके अनन्तर हम श्रीकृष्ण को वृन्दावन की गोपियों के हृदयस्थित प्रेम के झरनों पर अपना अधिकार जमाते पाते हैं। इस संसार में स्त्रियां मानो प्रेम के सरोवर हैं। माता, भगिनी, पत्नी और पुत्री आदि के प्रेम को अपनाकर उन्हें अपना प्रेम दिया, जिससे कि इस प्रेमानन्द अमृत सिन्धु में वे दोनों निमग्न हो गये। जिन पाश्चात्य विद्वानों ने श्रीकृष्ण लीला के इस अंश की आलोचना की है, उन्होंने उसके इस प्रेम और परमानन्द के यथार्थ तत्व को नहीं समझा है। यह श्रीकृष्ण और गोपबालाओं का प्रेम आधुनिक संसार का वह कलुषित काम नहीं है जो समाज को दूषित कर रहा है, वह तो परम निर्मल, सर्वथा उच्च एवं पवित्र प्रेम था जो कि अनायास ही दिव्यधाम का द्वार खोल देता है। जिन लोगों की यह धारणा है कि एक अपरिपक्व अवस्था का अवोध बालक भी कामेच्छा से युवतियों को मोहित कर सकता है वे अगर पागल नहीं तो ज्ञान एवं विवेक से रहित अवश्य हैं। इस अनन्त एवं नित्य प्रेम के ऊपर गोपियों ने अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था। भक्तों के लिये यह एक अनुपम शिक्षा है, जिसके अनुसार वे अपना मार्ग निश्चित करते हैं, जिससे कि वे इस प्रभु को प्रेममय ईश्वर को पहचान सकें।
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