प्रेमकल्पलता श्रीराधा जी का महाभाव 3

प्रेमकल्पलता श्रीराधा जी का महाभाव

प्रेमभक्ति का चरम स्वरूप श्रीराधाभाव है। इस भाव का यथार्थ स्वरूप श्रीराधिका जी के अतिरिक्त समस्त विश्व के दर्शन में कहीं नहीं मिलता। वे शंका, संकोच, संशय, सम्भ्रम आदि से सर्वथा शून्य परम आत्मनिवेदन की पराकाष्ठा हैं। रति, प्रेम, प्रणय, मान, स्नेह, राग, अनुराग और भाव, इस प्रकार बढ़ता हुआ परम त्यागमय पवित्र प्रेम अन्त में जिस रूप को प्राप्त होता है, वही महाभाव श्रीराधा जी में है।

वे इस महाभाव की प्रत्यक्ष प्रतिमूर्ति हैं। श्रीश्यामसुन्दर ही श्रीराधा के प्रेम-आलम्बन हैं। श्रीराधा जी इस मधुरस की श्रेष्ठतम आश्रय हैं। वे कभी प्रियतम के संयोगसुख का, कभी वियोगवेदना का अनुभव करती हैं। उनका मिलनसुख और वियोगव्यथा दोनों ही अतुलनीय तथा अनुपम हैं।

जब श्रीकृष्ण जी मथुरा जाते हैं तब श्रीराधा, समस्त गोपीमण्डल, सारा व्रज वियोग से अत्यन्त पीड़ित हो जाता है, पर श्रीश्यामसुन्दर माधुर्यरूप में सदा श्रीराधा के समीप रहते है। श्याम अपने सखा ब्रह्मज्ञानी उद्धव जी को व्रज में जाकर नन्दबाबा, यशोदा मैया को सान्त्वना देने तथा गोपांगनाओं एवं राधारानी को उनका स्नेहसंदेश सुनाने भेजते हैं, तब राधा जी उनसे कहती हैं-

उद्धव! तुम मुझको किसका यह सुना रहे कैसा संदेश?
भुला रहे क्यों मिथ्या कहकर? प्रियतम कहाँ गये परदेश?
देखे बिना मुझे, पलभर भी कभी नहीं वे रह पाते!
क्षणभर में व्याकुल हो जाते, कैसे छोड़ चले जाते?
मैं भी उनसे ही जीवित हूँ, वे ही हैं प्राणों के प्राण।
छोड़ चले जाते तो कैसे, तनमें रह पाते ये प्राण?[1]

श्रीराधा तथा अन्य गोपांगनाओं को ब्रह्मज्ञान देकर उद्धव समझाने की चेष्टा करते हैं पर उनका समस्त ब्रह्मज्ञान उनके निश्छल कृष्णप्रेम के आगे असफल हो जाता है। उनके प्रेम-प्रभाव में उद्धव जी का चित्त आप्लावित हो जाता है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पद-रत्नाकर 343

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