प्रेमकल्पलता श्रीराधा जी का महाभाव 2

प्रेमकल्पलता श्रीराधा जी का महाभाव

श्रीकृष्ण तथा राधा दोनों एक ही हैं- अभिन्न हैं। श्रीराधा जी नित्य ही भगवान श्रीकृष्ण के संग रहती हैं। अपने विचित्र विभिन्न भाव-तरंगरूप अनन्त सुखसमुद्र में श्रीकृष्ण को राधा जी नित्य निमग्न रखने वाली महाशक्ति हैं। वे एकमात्र अपने प्रियतम श्रीश्यामसुन्दर की सुख-विधाता हैं। वे त्यागमयी, मधुर स्वभाव वाली हैं। गुणों की अनन्त आकर होकर भी अपने को गुणविहीन मानती हैं। प्रेममूर्ति होकर भी अपने में प्रेम का अभाव देखती हैं। सौन्दर्यनिधि होकर भी अपने को सौन्दर्यरहित मानती हैं अर्थात निरभिमानी हैं।

राधा जी का समस्त श्रृंगार अपने प्रियतम श्रीकृष्ण के लिये ही होता है। उनका खाना-पीना, दिव्य गन्ध-सेवन, सुन्दरता का दर्शन, संगीत-श्रवण, सुख-स्पर्श, चलना-फिरना और सभी व्यवहार अपने लिये नहीं वरन् अपने प्रिय श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने हेतु होता है। उनके प्रेम का लक्ष्य होता है, श्रीकृष्ण के आनन्दविधान की ओर। उनका प्रेम अचिन्त्य और अनिर्वचनीय है, परम विशुद्ध तथा उज्ज्वल है। श्रीराधा का प्रेम सहज और परमोच्च शिखर पर आरूढ़ है। इसी राधा-प्रेम का दूसरा नाम अधिरूढ़ महाभाव है, जिसमें प्रियतम का सुख ही सब कुछ है।

अपने मन की अति गोपनीय स्थिति दर्शाती हुई श्रीराधा अपनी सखी से कहती हैं- मेरा जो कुछ भी था सब प्रभु को समर्पित हो गया। सब ओर से अपनी ममता सिमटकर केवल प्रभु में ही रह गयी। सभी सम्बन्ध टूट गये, केवल प्रभु से ही प्रगाढ़ सम्बन्ध रह गया है। सरस सुगन्धित सुमनों से छद्म रूप से सदा प्रभु की पूजा करती हूँ ताकि इसका प्रभु को पता न लगे। जहाँ भी रहूँ, कैसे भी रहूँ, इस पूजा का अन्त न हो। इस पूजा में मैं सदा आनन्द लाभ करूँ, इसी में मेरी रुचि है। यह पूजा सदा बढ़ती रहे। इस पूजा में नित्य प्रियतम श्रीकृष्ण के मनमोहन रूप को देखती रहूँ। पर मेरे प्रियतम कभी मेरी पूजा देख न पायें। अन्यथा यह एकांगी भाव न रह सकेगा। कितने निश्छल भाव से राधारानी अपने ये भाव अपनी प्रिय सखी से कहे-

रह नहीं पायेगा फिर यह एकांगी निर्मल भाव।
फिर तो नये नये उपजेंगे प्रिय से सुख पाने के चाव।।


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