प्रिये! तुम्हारी महान महिमा मन-वाणी से परे अनन्त।
लाख देव-जीवन में गाने पर भी कहीं न आता अन्त॥
दिव्य रूप-सौन्दर्य, भाव, गुण, दिव्य-मधुर माधुर्य महान।
पूर्ण अनन्त सहज पावन तुम, इन सबकी अनन्त हो खान॥
तुहें दीखता किंतु न निज में तनिक रूप, गुण, भाव, महव।
यह है शुचितम दैन्य प्रेम-पावन का, जो स्वाभाविक तव॥
देती रहती मुझे अमित सुख नित्य-निरन्तर परम उदार।
होता कभी विराम न पलभर बहती नित्य अमृत रस-धार॥
सहज समर्पण किया सहित मन-बुद्धि दिव्य आत्मा सर्वस्व।
रखा एक मेरी स्मृति को मेरे सुख को ही बना निजस्व॥
सतत दे रही रत्न दिव्य सुख नित्य नवीन, नवीन प्रकार।
घटता नहीं तथापि तुम्हारा रंचक दिव्य रत्न-भण्डार॥
पर न देखती, नहीं जानती इस अनवरत दान की बात।
वस्तु-योग्यता हीन-दीन लखती रहती निज को दिन-रात॥
मिलता तुमसे मुझे अनोखा सुख, मिलता नित नव रस-भाव।
बढ़ता ऋण, पर बढ़ता तुमसे नित नव सुख पाने का चाव॥
मूल-व्याज दोनों नित बढ़ते-यों नित ऋण बढ़ रहा अपार।
सदा रहूँगा ऋणी तुम्हारा मैं प्रियतमे! जीवनाधार॥