प्राणाधिके! प्रियतमे! -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्री कृष्ण के प्रेमोद्गार

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लावनी ताल तर्ज - कहरवा


प्राणाधिके! प्रियतमे! मुझको सतत स्मरण होता तेरा।
भूल नहीं सकता मैं पल भर कभी शशांक-वदन तेरा॥
तेरे प्रेम-सुधानिधि में नित डूबा रहता मन मेरा।
मधुमय वाणी सुनने को नित चित लुभाता है मेरा॥
प्रेम छलकती आँखें तेरी नित मेरे सम्मुख रहती।
सदा समीप खड़ी तू मन भर मन की सब बातें कहती॥
आलिंगन करती, सुख देती, गल-बैयाँ देकर मिलती।
चिपटी सदा हृदय से रहती, कभी न रत्तीभर हिलती॥
कभी मधुर संगीत सुनाती, कभी हँसाती औ हँसती।
कभी नयन मटकाती, भौंह चलाकर मनमें आ धँसती॥
प्रीति-विवश हो कभी मनोहर, रसमय तीव्र व्यंग्य कसती।
रोकर कभी रुलाती, कभी फँसाती, अपने ही फँसती॥
हो अति आतुर कभी दीन, दयनीय बनी चरणों पड़ती।
कभी विचित्र भंगिमा करती, कटु वाणी कहकर लड़ती॥
कभी परम संतोष दिलाकर, मन की सभी व्यथा हरती।
हो करबद्ध कभी अति करुणापूर्ण मधुर बिनती करती॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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