प्रभो! मिटा दो मेरा सारा, सभी तरह का मद-अभिमान।
झुक जाये सिर प्राणिमात्र के चरणों में, तुमको पहचान॥
आचण्डाल, श्रृगाल, श्वान भी हों मेरे आदरके पात्र।
सबमें सदा देख पाऊँ मैं मृदु मुसकाते तुमको मात्र॥
सबका सुख-समान परम हित ही हो, मेरी केवल चाह।
भूलूँ अपने को सब विधि मैं, रहे न तन की सुधि-परवाह॥
पूजूँ सदा सभी में तुमको यथायोग्य कर सेवा-मान।
बढ़ती रहे वृत्ति सेवा की, बढ़ती रहे शक्ति-निर्मान॥
परका दुःख बने मेरा दुख, सुख पर हो परका अधिकार।
बन जाये निज हित पर-हित ही, सुख की हो अनुभूति अपार॥
आर्त प्राणियों को दे पाऊँ सदा सान्त्वना-सुख का दान।
उनके दुःख-नाश में कर पाऊँ मैं समुद आत्म-बलिदान॥