प्रथमहिं देउँ गिरिहिं बहाइ।
ब्रज-घातनि करौं चुरकूट, देउँ धरनि मिलाइ।।
मेरी इन महिमा न जानो, प्रगव देउँ दिखाइ।
बरसि जल ब्रज धोइ डारौं लोभ देउँ बहाइ।।
खात-खेलत रहे नीकैं, करौ उपाभि बनाइ।
बरस दिन मोहि देत पूजा दई सोउ मिटाइ।
रिस सहित सुररज लीन्हे, प्रलय मेघ बुलाइ।
सूर सुरपति कहत पुनि-पुनि, परौ बृज पर छाइ।।852।।