प्रगट भए ब्रज त्रिभुवन राइ।
जुग-गुन बीति त्रिगुन-बुधि ब्यापी, सरन चल्यौ सुरपति अकुलाइ।
सपनैं कौ धन जागि परै ज्यौं, त्यौं, जानी अपनी ठकुराइ।
कहत चल्यौ यह कहा कियौ मैं, जगत-पिता सौं करी ढिठाइ।
सिव-विरंचि, रवि-चंद्र, बरुन-जम, लिए अमर-गन संग लिवाइ।
बार-बार सिर धुनत जात मग, कैहौं कहा बदन दिखराइ।
वे हैं परम कृपालु महा प्रभु रहौं सीस चरननि तर नाइ।
सूरदास प्रभु पिता मातु मैं, ओछी बुद्धि करी लरिकाइ।।975।।