परसुराम जदमग्नि-गेह लीनौ अवतारा -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग धनाश्री


  
परसुराम जदमग्नि-गेह लीनौ अवतारा।
माता ताकी गई जमुन जल कौ इक बारा।
लागी तहाँ अबार तिहि रिषि करि क्रोध अपार।
परसुराम सौ यौं कही, माँ बेगि संहार।
और सुतनि तब कही, पिता, नहिं, कीजे ऐसी।
क्रोधवंत रिषि कह्यौ, करौ इनहूँ सौ वैसी।
परसुराम तब कह्यौ, यहै बर देहु तात अब।
जानै नाहिन मुए, फेरिकै जीवै ये सब।
रिषि कह्यौ, यह बर दियौं मै, इनकौ देहु उठाइ।
परसुराम उनकौं दियौ, सोवत मनौ जगाइ।
परसुराम बन गए, तहाँ दिन बहुत लगाए।
सइसबाहु तिहिं समय जमदगिनि -आश्रम आए।
कामधेनु जमर्दिग्न की , लै गयौ नृपति छिनाइ।
परसुराम कों बोलि रिषि दियौ वृतांत सुनाइ।
परसुराम सुनि पिता-बचन, ताकौ संहारयौ।
कामधेनु दइ आनि, वचन रिषि कौ प्रतिपारयौ।
सहसबाहु के सुतनि पुनि, राखी धात लगाइ।
परसुराम जब बन गयौ। मारयौ रिषि कौ धाइ।
रिषि की यह गति देसि, रेनुका रोइ पुकारी।
परसुराम, तुम आइ लगत क्यौ नहीं गोहारी।
यह सुनि कै आयौ तुरत, मारयौ तिन्हैं प्रचारि।
बहुरौ जिय धरि क्रोध हते, छत्री, इकइस बार।
जग अराज ह्वै गयौ, रिषिनि तब अति दुख पायौ।
लै पृथ्वी कौ दान, ताहि फिरि बनहि पठायौ।
बहुरि राज दियौ छत्रियनि, भयौ रिषिनि आनंद।
सूरदास पावत हरष, गावत सुन गोविंद।।14।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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