परसत चरन चलत सब घर कौं -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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परसत चरन चलत सब घर कौं। जात चले सब घोष नगर कौं।।
सुख समेत मग जात चले सब। दूनी भीर भई तब तैं अब।।
कोउ आगैं कोउ पाछैं आवत। मारग मैं कहुँ ठौर न पावत।।
प्रथमहिं गए डगर तिन पायौ। पाछे के लोगनि पछितायौ।।
घर पहुँच्यौ अवहीं नहिं कोई। मारग मैं अटके सब लोई।।
डेरा परे कोम चौरासी। इतने लोग जुरे ब्रजवासी।।
पैंड़ो चलन नहीं कोउ पावत। कितिक दूरि ब्रज पूछत आवत।।
सूर स्याम गुन-सागर नागर। नूतन लीला करी उजागर।।919।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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