नौका हौं नाहीं लै आऊँ।
प्रगट प्रताप चरन कौ देखौं, ताहि कहाँ पुनि पाऊँ।
कृपासिंधु पै केवट आयौ, कँपत करत सो बात।
चरिन परसि पाषान उड़त है, कत बेरी उड़ि जात?
जो यह बहू हौई काहू की, दारु-स्वरूप धरे।
छूटै देह, जाइ सरिता तजि, पग सौं परस करे।
मेरी सकल जीविका यामैं, रघुपित मुक्त, न कीजै।
सूरदास चढ़ौ प्रभु पाछे, रेनु पखारन दीजै॥41॥