नैन कोर हरि हेरि कै, प्यारी बस कीन्ही।
भाव कह्यौ आधीन कौ, ललिता लखि लीन्ही।।
तुरत गयौ रिस दूरि ह्वै, हँसि कंठ लगाए।
भली करी मनभावते, ऐसैहुँ मै पाए।।
भवन गई गहि बाँह लै, निसि जागे जाने।
अंग शिथिल निसि स्रम भयौ, मनही मन भाने।।
अँग सुगंध मर्दन कियौ, तुरतहि अन्हवाए।
अपनै कर अँग पोछि कै, मनसाध पुराए।।
चीर अभूषन अंग दै, बैठे गिरिधारी।
रुचि भोजन पिय कौ दियौ, सूरज बलिहारी।।2489।।