नैननि कोउ समुझावै री।
अपनौ घर तुम छाँड़े डोलत, मेरे ह्याँ लै आवै री।।
यहौ बूझि देखौ नीकै करि, जहाँ जात कछु पावै री।
देखत के सब साँचे लागत, ताहि छुवत नहिं आवै री।।
वृथा फिरत नट के गुर देखत, नाना रूप बनावै री।
'सूर' स्याम-अँग-अंग-माधुरी, सत सत मदन लजावै री।।2308।।