निसि काहैं बन कौं उठि धाई -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिहागरौ


निसि काहैं बन कौं उठि धाई।।
हँसि-हँसि स्याम कहत हैं सुंदरी, की तुम ब्रज-मारगहि भुलाई।।
गई रहीं दधि बेचन मथुरा, तहाँ आजु अवसेर लगाई।।
अति भ्रम भयौ बिपिन क्यौं आईं, मारग वह कहि सबनि बताई।।
जाहु-जाहु घर तुरत जुवति जन, खीझत गुरुजन कहि डरवाई।।
की गोकुल तैं गमन कियौ तुम, इनि बातनि है नहीं भलाई।।
यह सुनि कै ब्रज-बाम कहत भई, कहा करत गिरिधर चतुराई।।
सूर नाम लै लै जन-जन के मुरली बारंबार बजाई।।1011।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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