निरखि सखि सुंदरता की सीवा।
अधर अनूप मुरलिका राजति, लटकि रहति अध ग्रीवा।।
मंद मंद सुर पूरत मोहन, राग मलार बजावत।
कबहुँक रीझि मुरलि पर गिरिधर, आपुहि रस भरि गावत।।
हँसत लसति दसनावलि-पंगति, ब्रज-बनिता-मन-मोहत।
मरकतमनि-पुट-बिच मुकुताहल, बंदनभरे मनु सोहत।।
मुख बिकसत सोभा इक आवति, मनु राजीवप्रकास।
‘सूर’ अरुन-आगमन देखि कै, प्रफुल्लित भए हुलास।।1808।।