निरखत ऊधौ कौ सुख पायौ।
सुंदर सुलज सुबंस देखियत, यातै स्याम पठायौ।।
नीकै हरिसंदेस कहैगौ, स्रवन सुनत सुख पैहै।
यह जानति हरि तुरत आइहै, यह कहि हृदै सिरैहै।।
घेरि लिए रथ पास चहूँघा, नद गोप ब्रजनारी।
महर लिवाइ गए निज मदिर, हरषित लियौ उतारी।।
अरघ देत भीतर तिहि लीन्हौ, धनि धनि दिन कहि आज।
धनि धनि ‘सूर’ उपँगसुत आए, मुदित कहत ब्रजराज।।3471।।