श्रीनारायणीयम्
एकत्रिंशत्तमदशकम्
तब बलि ने बड़े दर्स से कहा- ‘तुम नादान हो। अरे! मुझ जगदीश्वर से तीन पग भूमि की क्या याचना करते हो? सारी पृथ्वी का राज्य माँग लो! इस तीन पग भूमि से तुम्हें क्या लाभ होगा?’ परंतु गर्व करने के कारण वह तीन पग भूमि की पूर्ति करने में समर्थ न हो सका, जिससे उसे आक्षेपपूर्ण वचन तथा बन्धन दोनों सहने पड़े। यद्यपि बलि इसके योग्य नहीं था तथापि सम्यक् प्रकार से उस गर्व की उपशान्ति के लिए आपने वैसा किया।।3।।
यदि पादत्रयी से संतोष नहीं होगा तो त्रिलोकी की दान से भी वह संतुष्ट नहीं हो सकता- यों कहे जाने पर बलि ने आपको दान के लिए जल हाथ में लिया। तब बलि की धर्मस्थिरता की परीक्षा लेने की इच्छा वाले आपकी प्रेरणा से दैत्याचार्य शुक्र ने बलि को ‘अरे! ये साक्षात् विष्णु हैं, इन्हें दान मत दो, मत दो’- यों स्पष्ट रूप से मना किया।।4।। |
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