श्रीनारायणीयम्
द्वाविंशतितमदशकम्
‘जैसे अग्नि ईंधन को जला डालती है और औषधि रोगों को विनष्ट कर देती है, उसी तरह अनजान में भी किया हुआ हरि नामोच्चारण मनुष्यों के पाप-समूहों को भस्म कर देता है; हरि-नाम की ऐसी ही अपरिच्छेद्य महिमा है।’ प्रभो! विष्णुदूतों ने उन्हें ऐसा बतलाया।।9।।
यों समझाये जाने पर जब यमदूत वहाँ से चले गये और विष्णुदूतों का समुदाय अंतर्हित हो गया, तब अजामिल कुछ काल तक आपके भजन ध्यान का आचरण करता रहा। तत्पश्चात् आपके पार्षदों ने उसे वैकुण्ठ में पहुँचा दिया।।10।।
देव! अपने दूतों के (सब वृतान्त) निवेदन करने पर (भक्तापराध से) भयभीत हुए उन यमराज ने अपने भृत्यों को अत्यंत कड़े शब्दों द्वारा, यों शिक्षा दी- ‘आज से भगवच्चरणाश्रितजनों के निकट मत जाना।’ वातालयनाथ! ऐसे भक्तवत्सल आप मेरी भी रक्षा कीजिए।।11।। ।। इति अजामिलोपाख्यानं द्वाविंशतितम दशकं समाप्तम् ।। |
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