नारद कहि समुझाइ कंस नृपराज कौं 7 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री



छोटैं मुहँ बड़ बात कहत, अबहीं मरि जैहै।
जो चितवै करि क्रोध, अरे, इतनेहिं जरि जैहै।
छोह लगत तोहिं देखि मोहि, काकौ बालक आहि।
खगपति सौं सरबरि करी, तू बपूरौ को ताहि।
बपुरा मोकौं कहति मोहि, बपुरी करि डारौं।
एक लात सौं चाँपि, नाथ तेरे कौं मारौं।
सोचत काहु न मारियै, चलि काई यह बात।
खगपति कौं मैं हीं कियौ, कहति कहा तू जात।
तुमहिं बिधाता भए, और करता कोउ नाहीं।
अहि मारौगे आपु तनक से, तनक सो बाहीं।
कहा कहौं कहत न बनै, अति कोमल सुकुमार।
देती अबहिं जगाइ कै, जरि बरि हौत्यौ छार।
तू धौं देइ जगाइ, तोहिं कछु दूषन नाहीं।
परी कहा तोहि नारि, पाप, अपनैं जरि जाहीं।
हमकौं बालक कहति है, आपु बड़े की नारि।
बादति है बिनु काजहीं, वृया बढ़ावति रारि।
तुहीं न लेत जगाइ, बहुत जो करत ढिठाई।
पुनि मरिहैं पछिताइ, मातु, पितु तेरे भाई।
अजहुँ कह्यौ करि, जाहि तू, मरि लैहै सुख कौन?
पाँच बरष कै सात कौ, आगैं तोकौं हौन।
झिरकि नारि, दै गारि, आपु अहि जाइ जगायौ।
पग सौं चाँपी पूँछ, सबै अवसान भुलायौ।
चरन मसकि धरनी दली, उरग गयौ अकुलाइ।
काली मन मैं तब कही, यह आयौ खगराइ।
विषधर झटकी पूँछ फटकि सहसौ फन काढ़ो।
देख्यौ नैन उधारि, तहाँ बालक इक ठाढ़ौ।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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