नारद कहि समुझाइ कंस नृपराज कौं 2 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री



कै बालकनि भगाइ, जाहिं लै आन भूमि पर।
बरु हमकौं लै जाइ, स्याम-बलराम बचैं घर।
महरि सबै ब्रजनारि सौं, पूछति कौन उपाउ।
जनमहिं तैं करबर टरी, अब कैं नाहिं बचाउ।
कोउ कहै दैहैं दाम, नृपति जेतौ धन चाहैं।
कोउ कहै जैऐ सरन, सबै मिलि बुधि अवगाहैं।
इहीं सोच सब पगि रहे, कहूँ नहीं निरबार।
ब्रज-भीतर, नँद-भवन मैं, घर पर यहै बिचार।
अंतरजामी, जानि नंद सौं पूछत बाता।
कहा करत हौ सोच, कहौ कछु मोसौं ताता।
कहा कहौं मेरे लाड़िले, कहत बड़ौ संताप।
मथुरापति कैं जिय कछू , तुम पर उपज्यौ पाप।
कालीदह के पुहुप माँगि पठए हम सौं उनि।
तब तैं मो जिय सोच, जबहिं तैं बात परी सुनि।
जौ नहिं पठवहुँ काल्हि तौ, गोकुल दवा लगाइ।
मो समेत दोउ बंधु तुम; काल्हिहिं लेहि बँधाइ।
यहि कहि पठयौ कंस, तबहिं तैं सोच पन्यौ मोहिं।
प्रथम पूतना आइ, बहुत दुख दै जु गई तोहिं।
तृनावर्त के घात तैं, बहुत बच्यौ दुख पाइ।
सकटा-केसी तैं बच्यौ, अब को करै सहाइ।
अघा-उदर तैं बच्यौ, बहुत दुख सह्यौ कन्हाई।
बका रह्यौ मुख बाइ, यहाँ भयौ धर्म सहाई।
एती करबर हैं टरी, देवनि करी सहाइ।
तब तैं अब गाड़ी परी, मोकौं कछु न सुझाइ।
बाबा तुमहीं कहत, कौन धौं तोहिं उबारै।
सोइ ब्रज-भीतर प्रगटि, कंस गहि केस पछारै।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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