नहीं चुका सकता मैं बदला -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्री कृष्ण के प्रेमोद्गार

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तर्ज लावनी - ताल कहरवा


नहीं चुका सकता मैं बदला, कर सकता न कभी ऋण-शोध।
बँधा प्रेम-बन्धन, मैं करता स्वतन्त्रता का कभी न बोध॥
सहज स्वतन्त्र रूप मैं रहता स्वयं-रचित सुखमय परतन्त्र।
नहीं छूटना कभी चाहता, नहीं चाहता बनूँ स्वतन्त्र॥
मधुर प्रेम-परवशता मेरी प्रभुतापर प्रभुत्व करती।
रस-स्वरूप मुझमें यह पल-पल मधुर नित्य नव रस भरती॥
भूल सभी सा-भगवा मैं रस-सागर बन जाता।
नयी-नयी रस-सरिता‌ओं से भर, मैं रस से सन जाता॥
यह मेरा रस-लुध, नित्य रस-मा, सदा रस-पूर्ण स्वरूप।
ब्रह्मा सच्चिदानन्द पूर्ण से नित्य विलक्षण, परम अनूप॥
अतः सिद्ध-मुनि, परमहंस-योगी-विजानी-‌आत्माराम।
इसे जानने के प्रयत्न में रहते लगे सदा अविराम॥
किंतु न पाते इस सागर की गहरा‌ई का थाह कभी।
हार मान, ऊपर आ जाते परम सिद्ध वे लोग सभी॥
निर्मल प्रेम-बन्ध से जो मेरा रसरूप बाँध पाते।
वही विलक्षण इस स्वरूप को रसिक सुजान देख पाते॥
वे फिर इसमें अवगाहन कर करते मधुमय रसका पान।
वे ही फिर मुझको देते मेरा अभिलषित मधुर रस-दान॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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